जब बिन सोये रहा न जाए, नींद लगे तब सुखकारी ।
जब बिन खाये जिया न जाए, सूखी रोटी दुखहारी ।।
ज्ञानार्जन में तत्पर हों हम, बनें इन्द्रियों के स्वामी ।
ज्ञान प्राप्त कर भक्त बनें हम, बनें सुपथ के अनुगामी ।।
द्रव्य दूसरे का मिट्टी सम, माॅं सम मानें परनारी ।
जब बिन खाये जिया न जाए, सूखी रोटी दुखहारी ।।
नींद सदैव श्वान जैसी हो, रहें सचेष्ट काग जैसे ।
बक इव ध्यानावस्थित हों हम, पसरें विपिन आग जैसे ।।
भोजनभट्ट न बनें कभी हम, करें न व्यंजन से यारी ।
जब बिन खाये जिया न जाए, सूखी रोटी दुखहारी ।।
लक्ष्योन्मुख हर कदम बढ़ाएं, निर्भयता मन में लाकर ।
कदम न कम्पित होने पाएं, पगबाधा प्रचण्ड पाकर ।।
हम विदेह बन रहें गेह में, रहें न बनकर व्यभिचारी ।
जब बिन खाये जिया न जाए, सूखी रोटी दुखहारी ।।
मूल्य समय का पहचानें हम, बोलें सबसे मृदु वाणी ।
पले परार्थ भाव अन्तस में, कृपा करें माॅं कल्याणी ।।
समझो हुई साधना पूरी, वश में है वसुधा सारी ।
जब बिन खाये जिया न जाए, सूखी रोटी दुखहारी ।।
©® महेश चन्द्र त्रिपाठी
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