साहित्य के सच्चे सिपाही : पं. सोहनलाल द्विवेदी

जन्मदिवस पर सश्रद्ध स्मरण

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05 Mar '25
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                  स्वाधीनता आंदोलन के दौरान साहित्य के सच्चे सिपाही की भूमिका निभाने वाले सोहनलाल द्विवेदी ( 05 मार्च 1906 - 01 मार्च 1988 ) राष्ट्रीयता के पर्याय थे। लालबहादुर शास्त्री कहा करते थे कि अंग्रेजी शासन के दौरान मैं जब भी जेल गया हूं, सोहनलाल द्विवेदी की कविताएं हमेशा मेरा सम्बल रही हैं। आजादी मिलने के बाद भी द्विवेदी जी की राष्ट्रीयता का स्वर मंद नहीं हुआ। 1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान जब वे एक कवि-सम्मेलन में पहुंचे, सम्मेलन समाप्त हो चुका था और ग्रामोफोन पर गीत बजने लगा था। गीत के बोल थे- 'वतन की आबरू खतरे में है।' द्विवेदी जी ने पहुंचते ही गीत का प्रसारण बन्द कराया और मंच पर पहुंचकर माइक हाथ में ले लिया। सर्वप्रथम अपने विलम्ब से पहुंचने के लिए क्षमा मांगी और कहा कि मैं आप लोगो के लिए संजीवनी की तलाश में था। जब मिल गई, तब आया हूं। उन्होंने काव्य-पाठ प्रारंभ कर दिया- 'जोश जब तक लहू के हर कतरे में है, कौन कहता है वतन की आबरू खतरे में है?' उनकी सिंह-गर्जना सुनते ही लोग ठिठक गए। जो जाने लगे थे, वे लौट आए। जो खड़े थे, वे बैठ गए और द्विवेदी जी ने अपनी वीर रस की कई कविताओं का पूरी तन्मयता से पाठ किया। उन्हीं में से एक कविता थी -

"अब न गहरी नींद में तुम सो सकोगे 

  गीत गाकर मैं जगाने आ गया हूं ।

  अतल अस्ताचल तुम्हें जाने न दूंगा 

  अरुण उदयाचल सजाने आ गया हूं ।।"

                    राष्ट्रवादी चेतना के कवि पं. सोहनलाल द्विवेदी की राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के सिद्धांतों एवं आदर्शों में अटूट आस्था थी। उन्होंने 'गांधी अभिनन्दन ग्रन्थ' का सम्पादन करके उसे गांधी जी के 75 वें जन्मदिन पर उन्हें भेंट किया था। इस अभिनन्दन ग्रन्थ में उनकी अपनी चर्चित कविता "युगावतार गांधी" भी संकलित है -

"चल पड़े जिधर दो डग मग में, चल पड़े कोटि पग उसी ओर।

  पड़ गयी जिधर भी एक दृष्टि, गड़ गये कोटि दृग उसी ओर।।

  जिसके शिर पर निज धरा हाथ, उसके शिर-रक्षक कोटि हाथ।

  जिस पर निज मस्तक झुका दिया, झुक गये उसी पर कोटि माथ।।"

                     राष्ट्रचेता सोहनलाल द्विवेदी के मानस-पुत्र और कीर्तिलब्ध कवि धनंजय अवस्थी के अनुसार, “द्विवेदी जी बड़े मनमौजी स्वभाव के थे। उनके इस स्वभाव के सामने बड़े से बड़े प्रलोभन महत्वहीन थे। कभी तो वे एक आम आदमी अथवा एक बालक के बुलावे पर सोल्लास चल पड़ते और कभी विशिष्ट तथा अतिविशिष्ट व्यक्तियों के आमंत्रण की परवाह न करते हुए कहते, 'जो मनु होइ तो चलब, नहीं तो कोहू के नौकर नहीं हन'।”

                    द्विवेदी जी राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक कवि के साथ-साथ 'बाल साहित्य के निर्माता' के रूप में भी ख्यातिप्राप्त हैं। उनका साहित्यिक जीवन बाल-कवि के रूप में प्रारम्भ हुआ था। 'बालसखा'  पत्रिका का सम्पादन कर उन्होंने बच्चों का मन मोह लिया था। हजारीप्रसाद द्विवेदी को कहना पड़ा, "हिन्दी में बड़े-बड़े साहित्यकार तो हैं, किन्तु बच्चों के माई-बाप तो केवल सोहनलाल द्विवेदी जी ही हैं।" आज भी छोटे-छोटे बच्चे ( नन्हें-मुन्हें ) उनकी यह कविता गाते-गुनगुनाते बहुतायत में मिलते हैं -

"हमारा प्यारा भारतवर्ष 

  जगत से न्यारा भारतवर्ष 

  हिमालय मुकुट शीश शृंगार 

  हृदय गंगा-यमुना का हार

  नीलसागर पद रहा पखार 

  नयन का तारा भारतवर्ष 

  हमारा प्यारा भारतवर्ष ।"

                   द्विवेदी जी ने 'भैरवी', 'पूजा गीत', 'सेवाग्राम', 'गांध्ययन', 'झरना', 'कुणाल', 'विषपान', 'संजीवनी', 'मुक्तिगंधा', 'शिशु भारती' आदि अनेक ग्रन्थों की रचना की। उनके अमूल्य साहित्यिक योगदान के लिए उन्हें अनगिनत सम्मान मिले, उपाधियां मिलीं। राजस्थान विद्यापीठ द्वारा 1969 में 'चूड़ामणि' की उपाधि दी गई। भारत सरकार द्वारा 1970 में 'पद्मश्री' से अलंकृत किया गया। हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग ने 1982 में उन्हें 'साहित्य वाचस्पति' की उपाधि से विभूषित किया। सादा जीवन और उच्च विचारों से सम्पन्न द्विवेदी जी सम्मानों और उपाधियों से ऊपर थे। वे जनता जनार्दन के प्रेम के आकांक्षी थे, सम्मानों/ पुरस्कारों के लोभी नहीं। वे कहा करते थे -

"मुझे नहीं है लोभ राज्य के वरदानी वरदान का।

  मुझे नहीं है लोभ राज्य के सम्मानी सम्मान का।

  मैं जनता का साथी हूं, मैं कवि हूं हिन्दुस्तान का।"

                   राष्ट्रकवि पं. सोहनलाल द्विवेदी एक ऐसे कवि थे जिन्होंने अपने गीतों के माध्यम से पूरे भारत में देशप्रेम की पावन गंगा प्रवाहित की। उनके कालजयी साहित्यिक योगदान को कभी विस्मृत नहीं किया जा सकेगा। उनका सार्वकालिक सृजन सदैव जन-मन को प्रेरणा प्रदान करता रहेगा। अन्त में, आज उनके जन्मदिवस पर उन्हें अपनी सश्रद्ध श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए मुझे याद आ रही हैं डॉ. राकेश गुप्त की ये पुनीत पंक्तियां -

"हे सरस्वती के अमर पुत्र !

  हे तप:पूत ! हे पुण्यकाम !

  जन-जन के मन पर समासीन,

  तुमको मेरे शत-शत प्रणाम ।।"

©® महेश चन्द्र त्रिपाठी 

कैटेगरी:साहित्य



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इसके लेखक हैं Mahesh Chandra Tripathi

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