वैश्विक चेतना के चिन्तक : सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय'

जन्मदिवस पर सश्रद्ध स्मरण

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07 Mar '25
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             "भाषा का संस्कार सही वही होता है, जो इतना गहरा जावे कि लिखते-बोलते समय ही नहीं, स्वप्न देखते समय भी यह प्रश्न न उठे कि भाषा सही है या नहीं।" -भाषा के संस्कार पर ऐसी महत्वपूर्ण टिप्पणी करने वाले सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय' बीसवीं शताब्दी के हिन्दी साहित्य के नवोदय के सूत्रधार हैं। वे ध्रुव तारा की तरह हिन्दी साहित्य के आकाश में चमके। हिन्दी साहित्य की कोई ऐसी विधा नहीं है, जिस पर उनका अमिट हस्ताक्षर न हो। उन्होंने उपन्यास, कहानी, यात्रावृत्त, निबन्ध, रिपोर्ताज, संस्मरण और चिन्तन तथा काव्य के क्षेत्र में कालजयी रचनाओं का सृजन कर अकूत ख्याति अर्जित की। वे काल को सर्वथा नये ढंग से, पाश्चात्य चिन्तन से पृथक भारतीय चिन्तन के निकट परिभाषित करने वाले रचनाकार हैं।

                   कवि और गद्यकार दोनों रूपों में नयी दिशाओं का आविष्कार और परिष्कार करने वाले सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय'का जन्म 07 मार्च 1911 को उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के कसया ( कुशीनगर ) में हुआ था। उनकी आरम्भिक शिक्षा-दीक्षा घर पर ही हुई जहां उन्हें संस्कृत, फारसी, अंग्रेजी, बांग्ला, हिन्दी भाषा और साहित्य की शिक्षा दी गई। स्नातकोत्तर की शिक्षा के दौरान उनका सम्पर्क क्रान्तिकारी गतिविधियों से हुआ। 1930 में उन्हें पहली बार गिरफ्तार कर जेल भेजा गया। 1930 - 1936 की अवधि उन्होंने विभिन्न कारावासों में व्यतीत की। प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका "वागर्थ" ( अप्रैल 2015 ) में प्रकाशित राधाकृष्ण सहाय के संस्मरण 'स्मृतियों के घेरे में अज्ञेय' के अनुसार, "जानते हो, अज्ञेय कभी आर्मी में थे। तैराकी और घुड़सवारी वे जानते हैं। सेना से त्यागपत्र देकर क्रान्तिकारी बने। जेल गए। जेल से निकलने के बाद उन्होंने जयप्रकाश नारायण के अंग्रेजी अखबार का सम्पादन किया। ...... वे स्वपाकी हैं। अपना भोजन खुद बनाते हैं। वे फटे कुर्ते का रफ्फू स्वयं करते हैं।

                      उनके अज्ञेय नाम के पीछे की रोचक कथा यह है कि दिल्ली जेल में लिखी अपनी 'साढ़े सात कहानियां' उन्होंने प्रकाशन के उद्देश्य से जैनेन्द्र कुमार को भिजवाई थीं। वे कहानियां जैनेन्द्र कुमार द्वारा प्रेमचन्द को भेजी गईं। इनमें से दो राजनीतिक कहानियां प्रेमचन्द द्वारा स्वीकार कर ली गईं। परन्तु, कारागार से भेजी गई इन कहानियों के लेखक का नाम उजागर करना उपयुक्त नहीं समझा गया और लेखक के नाम की जगह 'अज्ञेय' लिखकर कहानियां प्रकाशित की गईं।

                   अज्ञेय को कविता में प्रयोगवाद का प्रवर्तक माना जाता है, परन्तु अपने द्वारा सम्पादित 'दूसरा सप्तक' की भूमिका में इस बात से असहमति व्यक्त करते हुए उन्होंने लिखा है, “प्रयोग कोई वाद नहीं है। हम वादी नहीं रहे, नहीं हैं। न प्रयोग अपने-आप में इष्ट या साध्य है। ठीक इसी तरह कविता का कोई वाद नहीं है; कविता भी अपने-आप में इष्ट या साध्य नहीं है। अतः हमें 'प्रयोगवादी' कहना उतना ही सार्थक या निरर्थक है, जितना हमें 'कवितावादी' कहना।”

                युगदृष्टा अज्ञेय ने साहित्य की सभी विधाओं में अपनी प्रतिभा का परिचय देकर पाठकों को प्रभावित किया, परन्तु उनका कवि रूप अधिक लोकप्रिय हुआ। कविता के क्षेत्र में उनका सबसे विशिष्ट अवदान नयी काव्यात्मक चेतना के लिए एक नवीन वातावरण की सृष्टि है। उनके द्वारा सम्पादित 'तारसप्तक' ने कविता के क्षेत्र में एक नये आन्दोलन का सूत्रपात कर इसमें समाहित कवियों को श्रेष्ठतर राहों का अन्वेषी बनाया। 'दूसरा सप्तक' में गाड़ी और आगे बढ़ी तथा 'वस्तु सत्य' को नि:शेष करती हुई 'रागात्मक संवेदना' के स्टेशन पर जा पहुंची। कुमुद शर्मा के अनुसार, 'नई कविता' के कवियों में अज्ञेय पहले कवि हैं जिन्होंने भाषा की संकुचित केंचुल फाड़कर उसमें नया, व्यापक और सारगर्भित अर्थ भरने का अभियान छेड़ा।"

                  व्यक्ति चेतना अज्ञेय के चिन्तन का केन्द्र बनी, मुखरित हुई और इसे लक्ष्य करके उन्हें अहंवादी और असामाजिक करार दिया गया; जबकि वस्तुत: वे ऐसे थे नहीं। वे तो सच्चे अर्थों में वैश्विक चेतना के चितेरे थे। प्रेम उनकी मूल प्रवृत्तियों में से एक है। उनके प्रेम की विशेषता है पौरुष, ऐन्द्रियता, बौद्धिकता और रहस्यात्मकता। 'तारसप्तक' के अपने वक्तव्य में उन्होंने कहा है कि आज का मानव-मन यौन-वर्जनाओं का पुंज है। तथापि ,उनकी 'हरी घास पर क्षण भर' शीर्षक प्रेम-कविता में प्रेम को एक उच्च धरातल पर स्थापित किया गया है। इस कविता में एक तरफ प्रेम की गहराई है, दूसरी तरफ प्रकृति से उसकी सम्पृक्तता और तीसरी तरफ आधुनिक जीवन पर कटाक्ष। कविता के आरम्भ में ही कवि कहता है -

"आओ, बैठो!

  तनिक और सटकर, कि हमारे स्नेह-भर का व्यवधान 

  रहे, बस

  नहीं दरारें सभ्य शिष्ट जीवन की।"

                    अज्ञेय की प्रेमानुभूति उनके लिए सीमाहीन खुलेपन की अर्थात मुक्ति की अनुभूति है। इस दृष्टि से 'हरी घास पर क्षण भर' की ये पंक्तियां उद्धृत करने योग्य हैं -

"धीरे-धीरे 

  धुंधले में चेहरों की रेखाएं मिट जाएं -

  केवल नेत्र जगें : उतनी ही धीरे 

  हरी घास की पत्ती-पत्ती भी मिट जावे लिपट झाड़ियों के पैरों में 

  और झाड़ियां भी घुल जावें क्षिति-रेखा के मसृण ध्वान्त में 

  केवल बना रहे विस्तार - हमारा बोध

  मुक्ति का,

  सीमाहीन खुलेपन का ही।"

                    "अज्ञेय की कविताओं में",  नन्द किशोर नवल के अनुसार, “एक सच्चाई है जो झूठ के पर्दे को फाड़कर चमक उठती है। यही उनकी अभिव्यक्ति को असरदार बनाती है और उन्हें दूसरे कवियों से अलग करती है। अज्ञेय का सौन्दर्य-बोध जितना नवीन था, उनकी अभिव्यक्ति भी उतनी ही समर्थ।”

                अपने युग के महान कवि अज्ञेय ने संवेदना और अभिव्यंजना दोनों को समान महत्व देकर अपनी रचनाओं में उनके श्रेष्ठतम स्वरूप को सुस्थापित किया। उन्होंने अपने जीवन को अपने ढंग से विविध रूपों में जाना और जिया। परिणाम में प्राप्त परितोष को उन्होंने अपनी कविता में इस प्रकार शब्दायित किया-

"मैं मरूंगा सुखी 

  क्योंकि तुमने जो जीवन दिया था 

  उससे मैं निर्विकल्प खेला हूं 

  खुले हाथों से मैंने उसे वारा है 

  मैं मरूंगा सुखी 

  मैंने जीवन की धज्जियां उड़ाई हैं।"

                  अज्ञेय को उनके उल्लेखनीय साहित्यिक योगदान के लिए देश-विदेश से अनेक सम्मान/ पुरस्कार प्राप्त हुए। उन्हें 1964 में उनकी कृति 'आंगन के पार द्वार' के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया और 1968 में 'कितनी नावों में कितनी बार' के लिए भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला। ज्ञानपीठ पुरस्कार से प्राप्त 2 लाख रुपए की धनराशि से उन्होंने हिन्दी के लेखकों की यायावरी के लिए एक ट्रस्ट का गठन किया। वे स्वयं भी आजीवन यायावर रहे। कभी एक जगह टिके नहीं। राहुल सांकृत्यायन के 'घुमक्कड़ शास्त्र' के वे व्यावहारिक प्रतिरूप थे। उन्हें पर्वतारोहण और फोटोग्राफी का बड़ा शौक था।

                   समकालीन साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण ऐतिहासिक भूमिका निभाने वाले सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय' का देहपात 04 अप्रैल 1987 को हुआ। 20 वीं शताब्दी में हिन्दी और भारतीय साहित्य के विकास की दशा और दिशा का निर्धारण उनके साहित्य के सम्यक अनुशीलन के बिना सम्भव नहीं है। उन्होंने बद्धमूल विचारों की जड़ें हिलाकर साहित्यिक चेतना को नयी ऊर्जा दी और उसे नयी सम्भावनाओं से भरा। अन्त में, उनकी कविता 'जागो सखि वसंत आ गया' की प्रारंभिक पंक्तियां उद्धृत कर मैं उन्हें उनके जन्मदिवस पर अपनी प्रणामाञ्जलि अर्पित करता हूं -

"मलयज का झोंका बुला गया 

  खेलते से स्पर्श से 

  रोम रोम कंपा गया 

  जागो जागो 

  जागो सखि वसंत आ गया जागो !"

 

©® महेश चन्द्र त्रिपाठी 

                    

                

कैटेगरी:साहित्य



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इसके लेखक हैं Mahesh Chandra Tripathi

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