सुदामा कौन थे ?
हमने सुदामा के बारे में बचपन से ही कथा, पांडाल, भागवत और टीवी पर सुना है। हम जानते हैं कि द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण पृथ्वी पर आए और उनके बचपन के मित्र थे सुदामा। सुदामा का जीवन अत्यंत निर्धनता में बीता। उनके पाँच पुत्र थे और एक पत्नी, जिनका पालन-पोषण भिक्षा से होता था। उनकी जीवनशैली साधारण और सादगीपूर्ण थी।
हर दिन, सुदामा पाँच घरों में भिक्षा मांगने जाते थे, और जितना भी उन्हें मिल जाता था, उसी से वे अपने परिवार का पालन-पोषण करते थे। अक्सर ऐसा होता कि उन्हें भिक्षा नहीं मिलती और उनके परिवार को भूखा रहना पड़ता। धीरे-धीरे उनके परिवार की स्थिति दयनीय हो गई, उनके पुत्र और पत्नी दुर्बल होते जा रहे थे। उनकी पत्नी हमेशा चिंतित रहती थी और बार-बार उनसे कहती थी कि वे द्वारका जाकर अपने मित्र श्रीकृष्ण से सहायता माँगें।
सुदामा का संकोच
सुदामा को श्रीकृष्ण से मिलने में संकोच था। उनके मन में यह विचार आता कि अब श्रीकृष्ण द्वारकाधीश बन गए हैं, इतने बड़े राजा के पास एक निर्धन मित्र की भला क्या पूछ होगी? उनके पास कृष्ण को भेंट देने के लिए कुछ भी नहीं था। क्या कृष्ण उन्हें पहचानेंगे? क्या वे उनकी सहायता करेंगे? इस तरह के अनेक विचार उनके मन में चलते रहते। लेकिन उनकी पत्नी ने उनसे मिलने का आग्रह किया और अंततः सुदामा ने द्वारका जाने का निर्णय ले लिया।
सुदामा की पत्नी ने अपने घर में जितने भी थोड़े बहुत बर्तन थे, उन्हें बेचकर या पड़ोस से उधार लेकर तीन मुट्ठी चावल की व्यवस्था की। उन चावलों को पोटली में बाँधकर सुदामा ने अपने मित्र श्रीकृष्ण के पास जाने का सफर शुरू किया।
द्वारका में सुदामा की यात्रा
जब सुदामा द्वारका पहुँचे, तो द्वारिका के वैभव को देखकर वे हैरान रह गए। उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि उनके मित्र श्रीकृष्ण इतने बड़े साम्राज्य के अधिपति हैं। द्वारका पहुँचने के बाद द्वारकाधीश तक यह खबर पहुँची कि एक निर्धन ब्राह्मण, जिसका नाम सुदामा है, उनसे मिलने आया है। श्रीकृष्ण यह सुनते ही दौड़ पड़े और अपने प्रिय मित्र को बाहों में भर लिया। उन्होंने सुदामा को सम्मान सहित अपने राजमहल में आमंत्रित किया और अपने निज आसन पर बिठाया।
श्रीकृष्ण ने सुदामा के चरण धोए, उनका सत्कार किया और उन्हें स्नेहपूर्वक भोजन कराया। इसके बाद उन्होंने सुदामा से पूछा कि वे उनके लिए क्या लाए हैं। संकोचवश सुदामा ने अपने तीन मुट्ठी चावल छुपाने का प्रयास किया, परंतु भगवान श्रीकृष्ण, जो अंतर्यामी हैं, उन्होंने सुदामा के हाथ से चावल खींच लिए।
तीन मुट्ठी चावल और रुक्मिणी का रोकना
श्रीकृष्ण ने जैसे ही पहली मुट्ठी चावल खाई, वैसे ही उन्होंने सुदामा के सारे कष्टों का अंत कर दिया। दूसरी मुट्ठी खाते ही सुदामा को समृद्धि का वरदान मिल गया। जब श्रीकृष्ण तीसरी मुट्ठी चावल खाने वाले थे, तो उनकी पत्नी रुक्मिणी ने उनका हाथ रोक लिया। रुक्मिणी ने कहा, “हे प्रभु, आपने सुदामा के भूतकाल के सभी कर्मों का फल ले लिया है, वर्तमान के भी कष्टों का अंत कर दिया है, परंतु भविष्य के कर्मों का फल मत खाइए। भविष्य के लिए सुदामा को स्वतंत्र रहने दीजिए ताकि वे अपने कर्मों से आगे की यात्रा खुद तय कर सकें।”
यहां पर यह कथा एक गहरा संदेश देती है कि जब हम भगवान के सानिध्य में आते हैं, तो हमारे भूतकाल और वर्तमान के सभी दोष मिट जाते हैं। लेकिन भगवान हमें भविष्य के कर्म करने के लिए स्वतंत्र छोड़ देते हैं ताकि हम अपने कर्मों से अपने जीवन का मार्ग निर्धारित कर सकें।
आध्यात्मिक दृष्टिकोण
यदि हम गहराई से देखें, तो सुदामा का चरित्र हमारे भीतर की आत्मा का प्रतीक है और भगवान श्रीकृष्ण हमारे भीतर बसे परमात्मा का प्रतीक हैं। सुदामा की स्थिति में हम सभी कभी न कभी होते हैं। हम सभी बाहरी भौतिकता में भटकते रहते हैं और अपने भीतर की सच्चाई को नहीं पहचान पाते।
सुदामा का द्वारका जाना हमारी आत्मा का अपने परमात्मा से मिलने का संकेत है। सुदामा के पांच पुत्र प्रतीक हैं हमारी पांच ज्ञानेन्द्रियों के, जो भौतिक संसार की प्यास से जलती रहती हैं। सुदामा की पत्नी उनके विवेक का प्रतीक है, जो उन्हें प्रेरित करती है कि बाहरी संसार में नहीं, बल्कि आंतरिक संसार में जाएं।
तीन मुट्ठी चावल हमारे तीन कालों – भूत, वर्तमान और भविष्य – का प्रतीक है। जब भगवान श्रीकृष्ण सुदामा के भूत और वर्तमान को ग्रहण कर लेते हैं, तो उनका जीवन का सफर निर्मल हो जाता है।
कहानी का सार
हमारे शास्त्रों, पुराणों और ग्रंथों में जो भी कहानियाँ हैं, वे मात्र कहानियाँ नहीं हैं। वे हमारे जीवन के गहरे सत्य को प्रकट करती हैं। यह सुदामा की कथा हमें सिखाती है कि हमें अपने परमात्मा को पहचानने की आवश्यकता है। जैसे सुदामा ने कृष्ण के सानिध्य में आकर अपने सभी कष्टों को दूर किया, वैसे ही हमें भी अपने भीतर के परमात्मा का अनुभव करना चाहिए।
यह कथा हमें इस बात की प्रेरणा देती है कि बाहरी दुनिया के सुख-सुविधाओं में भटकने के बजाय हमें अपने भीतर की यात्रा करनी चाहिए। जब हम ईश्वर का साक्षात्कार कर लेते हैं, तो हमारे जीवन के सारे दुख-दर्द दूर हो जाते हैं, और हमें आगे की यात्रा के लिए आशीर्वाद मिल जाता है।
समापन
तो मित्रों, सुदामा चरित्र का यह गहन विश्लेषण आज आपके समक्ष प्रस्तुत किया। यह कथा केवल कथा नहीं है, बल्कि हमारे जीवन का मार्गदर्शन करने वाली एक शिक्षाप्रद कहानी है।
आगे मैं इस कथा के और भी आध्यात्मिक और रहस्यमयी पहलुओं पर चर्चा करूंगा।
तब तक के लिए जय सीताराम। जय श्री कृष्ण। जय गोविंद।" ( सुनील भट्ट )
लेखक सम्पादत साप्ताहिक समाचार थीम
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