गणित के जादूगर : श्रीनिवास रामानुजन्

जयंती पर सश्रद्ध स्मरण

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22 Dec '24
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              श्रीनिवास रामानुजन् अपने समय के महानतम गणितज्ञ थे। उन्होंने विश्लेषण एवं संख्या सिद्धांत के क्षेत्र में अप्रतिम योगदान देकर सम्पूर्ण विश्व को अपनी प्रतिभा का लोहा मानने के लिए बाध्य कर दिया। उन्होंने अपनी एकनिष्ठ लगन से ऐसे अद्भुत गणितीय सूत्र खोज निकाले, जिनका प्रयोग आधुनिक चिकित्सा विज्ञान तथा क्रिस्टल विज्ञान मे भी किया जा रहा है, किया जाता रहेगा।

         रामानुजन् में बाल्यकाल से ही विलक्षण प्रतिभा-सम्पन्न थे। उन्होंने खुद से, बिना किसी शिक्षक या प्रशिक्षक के, गणित सीखा और अपने जीवनकाल में गणित के कुल ३८८४ प्रमेय संकलित किए। उन्होंने गणित के सहज ज्ञान और बीजगणित प्रकलन की अद्वितीय क्षमता के बल पर अनेकानेक मौलिक और अपारम्परिक निष्कर्ष निकाले जिनसे प्रेरणा प्राप्त कर आज भी गणित के शोधार्थी  कुछ नया करने की दिशा में अग्रसर हैं।

            रामानुजन् का जन्म २२ दिसम्बर १८८७ को दक्षिण भारत में कोयम्बतूर के निकट ईरोड नामक गांव में हुआ था। इनकी माता का नाम कोमलताम्मल तथा पिता का नाम श्रीनिवास अयंगर था। इनका बचपन मुख्यतः कुम्भकोणम, जो प्राचीन मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है, में व्यतीत हुआ। बचपन में इनका बौद्धिक विकास सामान्य नहीं था। ये तीन वर्ष की आयु तक बोल नहीं पाते थे। जब इतनी आयु तक रामानुजन् को बोलना नहीं आया तो माता-पिता को चिन्ता हुई कि कहीं बालक गूंगा तो नहीं है।

                बोलना शुरू करने पर रामानुजन् को विद्यालय भेजा गया। उन्होंने दस वर्ष की आयु में प्राइमरी परीक्षा सर्वाधिक अंकों के साथ उत्तीर्ण की। आगे की शिक्षा के लिए जब वे हाईस्कूल पहुंचे, उन्हें प्रश्न पूछना बहुत पसन्द था। उनके प्रश्न कभी-कभी उनके अध्यापकों को बड़े अटपटे लगते थे। यथा - संसार में पहला पुरुष कौन था? पृथ्वी और बादलों के बीच की दूरी कितनी होती है? रामानुजन् का व्यवहार बड़ा मधुर था, मनमोहक था। इनके सहपाठियों के अनुसार इनका व्यवहार इतना सौम्य था कि कोई इनसे कभी नाराज़ नहीं हो सकता था।

             रामानुजन् को हाईस्कूल की परीक्षा में अंग्रेजी और गणित विषय में अधिक अंक लाने पर सुब्रमण्यम छात्रवृत्ति का लाभ मिला। परन्तु, आगे चलकर उनका गणित के प्रति प्रेम इतना बढ़ गया कि वे दूसरे विषयों पर ध्यान ही नहीं देते थे। यहां तक कि वे अन्य विषयों की कक्षाओं में भी गणित के ही प्रश्न हल किया करते थे। परिणाम यह हुआ कि वे ग्यारहवीं कक्षा की परीक्षा में गणित को छोड़कर बाकी सभी विषयों में फेल हो गए और उनको छात्रवृत्ति मिलना बंद हो गया। उनके घर की आर्थिक स्थिति अच्छी न थी। छात्रवृत्ति बंद हो जाने से अर्थ-संकट बढ़ गया और औपचारिक शिक्षा अधूरी छूट गई।

             विद्यालय छोड़ने के पश्चात् पांच वर्ष का समय रामानुजन् के लिए हताशा भरा था। घर की स्थिति सुधारने के लिए उन्होंने गणित के ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया और कई सेठ-साहूकारों के यहां खाता-बही लिखने का काम किया। भारत इस समय परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था। ऐसे प्रतिकूल समय में रामानुजन् का अपनी कुलदेवी के प्रति अटूट विश्वास काम आया और गणित के प्रति अगाध श्रद्धा ने उनको हिम्मत नहीं हारने दी। 

             नामगिरी देवी रामानुजन् के परिवार की इष्टदेवी थीं जिनके सहारे ही उन्होंने विपरीत परिस्थितियों में भी अपने गणित के अध्ययन और शोध को जारी रखा। २१ वर्ष की आयु में माता-पिता ने इनका विवाह जानकी नामक कन्या के साथ कर दिया। विवाहोपरान्त ये नौकरी की तलाश में मद्रास गए परन्तु बारहवीं उत्तीर्ण न होने के कारण नौकरी नहीं मिली। उल्टे बीमार पड़ गए और चिकित्सक की सलाह पर अपने घर कुम्भकोणम लौट आए।

             बीमारी से ठीक होने के पश्चात् रामानुजन् पुनः मद्रास पहुंचे और किसी के कहने पर वहां के डिप्टी कलेक्टर वी. रामास्वामी अय्यर से मिले। जब ये किसी से मिलते थे तो उसे अपना एक रजिस्टर दिखाते थे जिसमें इनके द्वारा गणित में किये गए कार्यों का उल्लेख था। अय्यर गणित के बहुत बड़े विद्वान थे। उन्होंने रामानुजन् की प्रतिभा को पहचाना और जिलाधिकारी से कहकर रामानुजन् के लिए २५ रुपए मासिक छात्रवृत्ति का प्रबंध कर दिया। इस वृत्ति पर रामानुजन् ने मद्रास में एक वर्ष रहते हुए अपना प्रथम शोध-पत्र प्रकाशित किया जिसका शीर्षक था -"बरनौली संख्याओं के कुछ गुण"।

            लगभग एक वर्ष बाद रामानुजन् को मद्रास पोर्ट ट्रस्ट में क्लर्क की नौकरी मिल गई। सौभाग्य से नौकरी में काम का बोझ अधिक नहीं था और इन्हें अपने गणित के कार्य को आगे बढ़ाने के लिए पर्याप्त समय मिल जाता था। रामानुजन् रात-रात भर जागकर गणित के नये-नये सूत्र लिखा करते थे। अब उनके शोध-पत्र 'जर्नल आफ इंडियन मैथमेटिकल सोसाइटी' में प्रकाशित होने लगे थे।

            भारत में नाम काफी चर्चित हो जाने पर रामानुजन् का ध्यान लंदन के प्रोफेसर हार्डी की ओर गया। उस समय प्रो. हार्डी विश्वविख्यात गणितज्ञों में से एक थे। प्रो. हार्डी के शोध कार्य को पढ़कर रामानुजन् ने उन्हें पत्र के माध्यम से बताया कि मैंने आपके सभी अनुत्तरित प्रश्नों का हल खोज निकाला है। इससे प्रो. हार्डी बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने तुरन्त रामानुजन् को लंदन आने के लिए आमंत्रित किया। हार्डी ने गणितज्ञों की योग्यता जांचने के लिए ०० से १०० अंक तक का एक पैमाना बनाया और परीक्षा ली। इस परीक्षा में हार्डी ने स्वयं को २५ अंक दिए। महान गणितज्ञ डेविड गिलबर्ट को ८० अंक और रामानुजन् को पूरे के पूरे १०० अंक दिए। इस प्रकार प्रो. हार्डी ने रामानुजन् को विश्व का महानतम गणितज्ञ घोषित किया।

                १९१७ में रामानुजन् को लंदन मैथेमेटिकल सोसाइटी के लिए चुना गया। राॅयल सोसाइटी के पूरे इतिहास में रामानुजन् से कम आयु का कोई सदस्य आज़ तक नहीं हुआ। टीबी की बीमारी के कारण रामानुजन् को १९१९ में भारत लौटना पड़ा। बीमारी बढ़ती गई और २६ अप्रैल १९२० को मात्र ३३ वर्ष की उम्र में उन्होंने कुम्भकोणम स्थित अपने आवास में अन्तिम सांस ली। उनकी जीवनी 'द मैन हू न्यू इन्फिनिटी' १९९१ में प्रकाशित हुई और २०१५ में इसी जीवनी पर आधारित फिल्म भी रिलीज हुई। गणित के जादूगर के रूप में उनकी ख्याति आज भी अक्षुण्ण है, आगे भी रहेगी।

@ महेश चन्द्र त्रिपाठी 

कैटेगरी:देश प्रेम



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इसके लेखक हैं Mahesh Chandra Tripathi

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