विषयोन्मुख इन्द्रियां दशानन बन जाती हैं ।
कंचन काया की लंका में सुख पाती हैं ।।
विषयों से हो विमुख आत्म-उन्मुख जब होतीं ।
कर देती हैं मना, दशानन-भार न ढोतीं ।।
दशरथ लेता जन्म तभी काया के अन्दर ।
लंका, अवधपुरी बन जाती, लेती मन हर ।।
कालान्तर में राम जन्म का अवसर आता ।
दृश्य रामलीला का साधक के मन भाता ।।
सब कुछ होता, मनमन्दिर में घटती घटना ।
साधक को माया से पड़ता किन्तु निपटना ।।
मायापति की शरण गहें, निपटें माया से ।
प्रायः लोग छले जाते कंचन काया से ।।
छल से बचने हेतु ईश की शरण गहें हम ।
हरि का भजन करें निशिवासर जहां रहें हम ।।
कामधेनु है भजन, शांति-सुख-पय का दाता ।
धन्य धन्य वह मनुज, भजन से जिसका नाता ।।
भजनोन्मुख को कभी इन्द्रियां नहीं सतातीं ।
वे भक्तों को सरल मुक्ति की राह सुझातीं ।।
आओ बनकर भक्त, मुक्ति का पथ अपनाएं ।
त्याग जगत का भंगुर वैभव जश्न मनाएं ।।
©® महेश चन्द्र त्रिपाठी
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