आन - बान के साथ शान जब, बढ़ जाती है तन की।
जान जिंदगी में आ जाती, कली खिले यौवन की।।
काले-काले केश भ्रमर इव, मंडराते आनन पर।
इन्द्रधनुष- से परिधानों की, शोभा लगती सुखकर।।
पूरी होतीं भांति - भांति की, साधें अपने मन की।
सबको सजधज पर व्यय करना, तब है बहुत सुहाता।
जब जुड़ जाता है नयनों का, नव नयनों से नाता।।
इत्र- फुलेल- तेल से सेवा, करते सभी बदन की।
आभूषणप्रियता बढ़ जाती, नए शौक चर्राते।
अस्त्र-शस्त्र से देख सुसज्जित, शत्रु सभी थर्राते।।
भाता अपने पर इतराना, याद भूल बचपन की।
साबुन- डिटर्जेंट का खर्चा, यौवन में बढ़ जाता।
बेच पुराना, नया- नया नित, माल सदन में आता।।
पूरी होती येनकेनविधि, आवश्यकता धन की।
यश-अर्जन की अभिलाषा तब, खूब कुलांचे भरती।
सीमा से ज्यादा बढ़ने पर, चैन और सुख हरती।।
जाते भूल यम-नियम सारे, सुधि बिसरे आसन की।
कोई कहां पकड़ पाता पर, क्रूर काल की गति को।
यौवन जाता रीत अजाने, ठोकर लगती मति को।।
तब ही आती याद सभी को, हरि-चिंतन, दर्शन की।
@ महेश चन्द्र त्रिपाठी
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