आंकड़े रच रही मंहगाई ।
जारी है इसकी पहुनाई ।।
होती मूल्यों में सतत वृद्धि ।
नेताओं को दिखती समृद्धि ।।
बेरोजगार नवयुवकों को
तरसाती है पाई-पाई ।
आंकड़े रच रही मंहगाई।।
करने को दृढ़ अपनी सत्ता ।
सरकार बढ़ा देती भत्ता ।।
पर जो भत्ते से दूर उन्हें
यह करना लगता दुखदाई ।
आंकड़े रच रही मंहगाई।।
कृषकों को कभी न खुशहाली ।
बद से बदतर हालत माली ।।
असमय आती वृद्धावस्था ,
आए बिन तन में तरुणाई ।
आंकड़े रच रही मंहगाई।।
जनता को मिलता नहीं न्याय ।
घटती जाती अनवरत आय ।।
अगड़ों-पिछड़ों के झगड़ों ने
क्षति अकथनीय है पहुंचाई ।
आंकड़े रच रही मंहगाई।।
मंहगी शिक्षा, मंहगा इलाज ।
बनकर जाते हैं बिगड़ काज ।।
बहुतायत कालनेमि की है ,
जन्मते न अब हातिमताई ।।
आंकड़े रच रही मंहगाई।।
भगवान भरोसे है जनता ।
उसका कुछ काम नहीं बनता ।।
मतदाता बन मतदान करे ,
मुर्दनी मगर रहती छाई ।
आंकड़े रच रही मंहगाई।।
@ महेश चन्द्र त्रिपाठी
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