😶कितना ख़ुद को जानता हैं ✍️
वो कवि है, कितना ख़ुद को जानता है,
जो मुख पे उसके सदा मुस्कान रमता है।
पर मन में उसके उदासी का सागर है,
हर छंद में कोई अधूरा सा व्याख्यान रहता है।
वो हँसता है सबके दुख हरने को,
पर अश्रु छिपे हैं शब्दों के धरने को।
वो गीत सुनाए जीवन की आशा के,
जब खुद की साँसें हों बस निराशा के।
दुनिया कहे—कितना उजला मन है इसका,
कौन देखे जो दीप जले, उसमें कितना धुआँ बसा।
हर तुक में वो पीड़ा की लौ रखता है,
पर छवि बनाता है जो सबको ताक़त देता है।
वो खुद ही खुद का विश्लेषक भी है,
अपने ही प्रश्नों का आलोचक भी है।
जो हर उत्तर में फिर से प्रश्न गढ़ता है,
और अपनी ही कविताओं में कहीं खो जाता है।
ये कवि, जिसे सबने बस शब्दों में जाना,
कभी किसी ने न उसका मौन पहचाना।
वो मुस्कुराता है, क्योंकि रो नहीं सकता,
वो लिखता है, क्योंकि जी नहीं सकता।
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