कुंभ: अनियंत्रित भीड़ का मेला

भीड़ कल भी अनियंत्रित थी और आज भी है और शायद आने वाले जितने भी मेले हो उसमें रहे..…

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31 Jan '25
6 मिनट की पढ़ाई


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#हमने गलतियों से क्या सिखा…

#भीड़ कल भी अनियंत्रित थी और आज भी है और शायद आने वाले जितने भी मेले हो उसमें रहे..…

#भीड़ खुद से नियंत्रित नहीं होती और न ही भीड़ को बल द्वारा नियंत्रित किया जा सकता लेकिन है भीड़ को अच्छे संबोधन और पूर्व गठित माहौल से नियंत्रित करने में कुछ हद तक सफलता पाई जा सकती है।

      वर्तमान में व्यक्तियों के पास धैर्य नहीं है और साथ ही जिद की पराकाष्ठा है जो किसी की सुनना नहीं चाहते सभी ऐसे भाग रहे है जैसे एक लाइन से बिछड़ी हुई चींटी.., सिनेमा हॉल में देखिये, फिल्म का आखिरी सीन चल रहा है लगता है कि अब दो-चार मिनट में फिल्म ख़तम हो जायेगी, लोग एग्जिट के पास जाकर खड़े हो जाते हैं, फिल्म ख़त्म होते ही ऐसे भागते हैं जैसे अब तक जेल में थे. ट्रेन अगर अपने गंतव्य पर पहुँचने वाली हो तो लोग पंद्रह मिनट पहले सामान लेकर खानदान सहित दरवाजे पर ऐसे लद जाते हैं कि ट्रेन क्या पता रुके न रुके, धीमी होते ही बीवी बच्चों समेत कूद जाना है.अभी कुछ दिन पहले मैंने थियेटर में देखा कि लोगों को पता चल गया कि ये आखिरी परफोर्मेंस है तो दस मिनट पहले कुछ कद्रदान ये कहते हुए निकल गए कि बाद में पार्किंग में भीड़ हो गयी तो गाडी फँस जायेगी, निकल लेते हैं।

हमारे जीवन से धैर्य, तसल्ली, पेशेंस कहाँ चला गया?

  लोगों का कहना है कि कुंभ में प्रशासन क्या कर सकता है भीड़ को खुद समझना चाहिए, तो उनके लिए 2 से 4 बातें की आप खुद को इतना समझदार मान रहे हों कि गलती किसकी ये बता दिया फिर भी आपको ये नहीं पता कि प्रशासन का काम होता है कि ये नियंत्रित करना है सुचारू रूप से करना है जिसके लिए वो ट्रेनिंग लेते है पढ़ाई किए होते है एग्जाम क्वालीफाई करते है और लाखों लोगों में से बुद्धिमान चुने जाते है केवल इसलिए जिसके लिए उनको तमाम सुविधा और बल मिलता है वो अपनी गलती स्वीकार नहीं कर रहे तो आम जनता जिसके अंदर धैर्य भी कम और डर भी उसे दोषी मान ले रहे। अगर व्यवस्था नहीं थी तो इतने लोगों को बुलाओ ही मत ढिंढोरा ही मत पीटो और ऐसा हाल में ही हुआ है राम मंदिर प्रतिष्ठा में या एक गुहार से कोविड में थाली पीट दिए। ऐसे भोली और आज्ञाकारी जनता को भी नियंत्रित नहीं कर सकते तो एक साधारण मनुष्य और प्रशासक में कोई फर्क नहीं.. और साथ में उसके बाद भी अपने फायदे के लिए खुद की शाबाशी के लिए चीजों की जवाब दही नहीं जिससे लोगों को अपने नायक से दिशाहीन होने की भावना होती है और कई अप्रिय घटना हो सकती है, बातें तो बहुत हैं लेकिन वो प्रश्न के रूप में है...।

रील्स का जो ये ज्वालामुखी फटा है ये यही तो बता रहा है कि हम तीन मिनट का वीडियो भी शांति से नहीं देख सकते. हमें जानने की जल्दी तो है, सब कुछ जानना है सब कुछ करना है लेकिन उसे समझने का धैर्य नहीं है. OTT वगैरह पर एक नया आप्शन पैदा हुआ है जो वीडियो की गति बढ़ा देता है, 1x, 1.5x, 2x. यानी अगर आप दो घंटे की एक फिल्म 2x स्पीड में देखेंगे तो वो जल्दी चलकर एक घंटे में ख़त्म हो जायेगी. उन्हें ये आप्शन देने की ज़रूरत इसीलिए ही तो पड़ी होगी कि कुछ लोग इस तरह फिल्म देख रहे होंगे ।

  सब कुछ करना है जो लोग कर रहे हैं लेकिन सबको जल्दबाजी में करना है, हमने अपनी जिंदगी से ठहराव खो दिया है. अब हम रुक कर नहीं सोचते. थम कर उस कार्य को नहीं करते जिसे असल में करने आए होते है उस गाने को पूरा नहीं सुनते जो हमारी आत्मा तक पहुँचने की कुव्वत रखता है. थोड़ा भी लोगों से दूरी हमें स्लो लगती है. हम एक पांच सौ पेज की किताब नहीं पढ़ना चाहते इसलिए फेसबुक पर मैगी लेखकों का उदय हो रहा है जो आपको मोटी-मोटी किताबों में से कुछ उत्तेजक हिस्से निकाल कर पेश कर देते हैं और छोटी छोटी बातों को जो उन्हें अच्छी लगी उसे सच मानकर एक दिशा में सोचने लगते है जबकि बातों में चारों तरफ से महत्व होता है चाहे प्रश्न हो या उत्तर इसलिए साधारण लोगों से प्रशासक और अधिकारी अलग होते है और आपको लगता है हमने सब कुछ जान लिया. कहते हैं God is in the details लेकिन God को भी कहाँ पता था कि डिटेल्स जानने की फुर्सत लोगों के पास रहेगी नहीं. किताबें तो बहुत दूर की बात रही लोगों के पास इतना धैर्य नहीं बचेगा कि वो एक तीन पेज की फेसबुक पोस्ट पढ़ पायें।

     तसल्ली से एक बार थम कर, रुक कर, ठहर कर सोचिये कि ये जो जल्दी दिखा कर आप समय बचा रहे हैं इसका आप क्या उपयोग करने वाले हैं? ज़रा सोचिये कि ये जो जल्दी दिखा कर आप खो रहे हैं उसकी कीमत क्या है? सूचनाओं का ये अम्बार जो हमारे दिमाग में सतत खलल मचाये हुए है वो हमें कहीं रुकने नहीं दे रहा है. एक तीन पेज की कविता पढ़कर उसको अपनी आत्मा तक पहुँचने देना और कई बार ऐसे दृश्य जो नहीं होने थे उन घटनाओं के बारे में सोचकर फिर उससे एक बेहतर संवेदनशील इंसान बनकर निकलने का वक़्त नहीं है हमारे पास...।

आपको और मुझे रुकने की ज़रूरत है. सब कुछ जानना हमारे लिए ज़रूरी नहीं है. हमारे पास वक़्त की कोई कमी नहीं है. हमने जो ये बिगुल छेड़ रखा है ना कि टाइम नहीं है. ये बकवास बात है. बहुत वक़्त है हमारे पास, इसलिए रुकिए, ठहरिये और बैठ जाइए. सिनेमा हॉल से भागने की ज़रूरत नहीं है, ट्रेन से कूद कर कहीं नहीं जाना है, किसी भीड़ भाड़ में बैरिकेटिंग तोड़ने की जरूरत नहीं है,रिमोट को एक तरफ रखकर फिल्म को देखना है क्योंकि वही करने गए हो तो आराम से करो मंजिल से ज्यादा रास्तों को एंजॉय करो और किसी अच्छी किताब के दो पेज पढ़कर रूककर सोचना है कि क्या पढ़ा. क्षणों को अपने अन्दर आत्मसात नहीं किया तो रोबोट बन जायेंगे. बन क्या जायेंगे बन ही रहे हैं.।




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इसके लेखक हैं आत्मविश्वचेतस शोभित

अहम(मैं) से हम की ओर.......😊 #Save जल,जंगल,जमीन #सम्मान>समानता

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