लिखते लिखते लव हो जाए ,

एक बीते दौर की बातें ।

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21 Jun '24
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मुझे मेरे लड़कपन के वो दिन याद आ रहे है जब में मिडिल स्कूल स्तर का विद्यार्थी था । विद्यार्थी जीवन की सबसे अहम वस्तुएं होती है स्लेट , , कॉपी , पेन , किताब , स्कूल बैग (जिसे तब बस्ता कहा जाता था ) लंचबॉक्स , पानी की बोतल इत्यादि । आज केवल पेन पर चर्चा करूंगा बाकि के भी बहुत रुचिकर किस्से है जिस पर और किसी दिन बात होगी । प्राथमिक स्तर तक हमारा ज्यादातर पाला स्लैट पट्टी ( जिसे तब पहाड़ा पट्टी भी कहा जाता था )  और खड़िया चाक स्लैट से पड़ा हुआ है । चूंकि तब हम सीखने के शुरुआती दौर में होते है जिसमें गलतियों की संभावना ज्यादा होती है और गलती होने पर उसे हम आसानी से मिटा सकते है इसलिए स्लैट का उपयोग किया जाना निहायत जरूरी हो जाता है । माध्यमिक के उत्तरार्ध और प्राथमिक शाला स्तर तक पूर्ण रूप से हम पठन- पाठन और लेखन में अभ्यस्त हो चुके होते है इसलिए हमारे हाथ में आ जाती है कॉपी और पेन । कॉपी और पेन के आपसी संबंध यूं है मानो वे दोनों आपस में सगे भाई- बहन हो , जो सदैव लड़ते- झगड़ते भी रहे , प्यार भी करते रहे , एक दूसरे की परवाह भी करते रहे , यानी दोनो में गजब का प्रेम भी और गजब की नाराज़गी भी , गोया कि यदि लेखन में कोई गलती हुई और दिमाग में गुस्सा कुलबुलाया तो दे रगड़ के पेन से कॉपी के पृष्ठ पर , और पृष्ठ बेचारा फटेहाल हो जाए , किसी सुलेखन या टेस्ट में माटसाब (गुरुजी) ने अंडा (शून्य) दे दिया हो तो उस अंडे यानी शून्य पर इतना चितिर- पितीर (पैन से बार बार रगड़ते हुए कुछ भी उलजुलूल लिख देना ) किया जाता है कि मानो वो अंडा गुरुजी का टकला सिर हो और विद्यार्थी ने उनके सिर पर मारे गुस्से के पेन से अच्छी तरह लथेड़ते हुए खुजाल दिया हो । वैसे तो अंडा देने का काम मुर्गी ही करती रही है मगर मुर्गी के बाद एक ही प्रजाति होती थी जिसे माट्टसाब ,गुरुजी या सर कहा जाता था , जो अंडा देने का काम करती थी , और दुख ये कि उनके दिए अंडे का आमलेट भी नही बनाया जा सकता था बहरहाल घर वाले विद्यार्थी का भर्ता जरूर बना देते थे , और माट्टसाब को अलग से हिदायत दे आते कि इसकी शाला में अलग से कुटाई की जाए चूंकि उन्होंने एक देववाक्य सुन रखा था कि " छड़ी पड़े छम-छम विद्या आवे धम- धम" उन्हे ऐसा महसूस होता कि बच्चें की छड़ी पूजा ठीक से नही हो रही है , सो इतने जोर- जुलुम सहने के बाद आतंकी किस्म के विद्यार्थी अपने-अपने ढंग से बदला लेते माट्टसाब से । सो इस तरह बेचारे पेन और कॉपी भी खामियाजा उठाते और लड़ते- झगड़ते रहते थे उन दिनों । यू तो पेन ढेर सारी हुआ करती थी लेकिन सबकी प्यारी एक ही थी ‘रोटोमैक’ !  उस पैन का विज्ञापन जो हमें यहां-वहां झांकते हुए किसी संपन्न घर या दुकान पर लगी ब्लैक एंड व्हाइट टीवी में आ रहे एक विज्ञापन जिसका जिंगल होता  "लिखते लिखते लव हो जाए" बहुत लुभाता था ! समय के साथ-साथ पैन के नानविध प्रकार आते गये ! कोई खुशबू बिखेरने वाली , कोई एकाध फूट लम्बी , कोई तितली सी कलरफुल , कोई बिलकुल स्लिम सी फाइन बॉल पॉइंट वाली !  एक होती थी Montex के नाम से उसमे रबर की एक ग्रिप लगी होती थी , पता नही वो ग्रिप किस काम की थी वरना मेरे हाथ से वो अक्सर फिसल ही जाया करती थी ! रोटोमैक के बाद जो सबसे ज्यादा चहेती रही , वो थी रेनोल्ड्स , बेहद सरल और साधारण सा डिजाईन और और उतना ही असाधारण उसका फ्लो कि जैसे खुरदुरे से खुरदुरे पृष्ठ पर भी मानो मक्खन से लिखा जा रहा हो ! ये सब ढक्कन वाली पेने थी , और क्या कमाल की उपमाएं और नामकरण हमारे तत्कालीन माट्टसाबों द्वारा किया जाता रहा उस दौर में कि कुछ विद्यार्थी बच्चों को भी ढक्कन कहा जाता था , ये ऐसे मासूम विद्यार्थी थे जिनके आगे नाथ न पीछे पगहा , अर्थात वे सब बन्धनों से मुक्त परम स्वतंत्र उन्हें चाहे जितना पढ़ा , लिखा और समझा-समझा के माट्टसाब अपना भैजा (दिमाग) खाली कर दे पर उन्हें ना आगे कुछ समझ आता न पीछे कुछ , फिर ऐसे बच्चे ढक्कन की उपमा पाकर अलंकृत होते ! फिर आया था जेल पेन का दौर जो कि कुछ महंगी हुआ करती और रसूखदार विद्यार्थियो के पास ही मिलती ! नीब वाली पैन और जेल पेन अमूमन महंगी हुआ करती ! एक बार अपना दिल आकर अटका जेल वाली पेन पर जो कि उस दौर के लिहाज़ से उतनी महंगी हुआ करती थी कि पिताजी से उसकी डिमांड नही की जा सकती थी ! कुछ दिनों तक मै यही जुगत बिठाते रहा कि किस तरकीब से जेल पेन हासिल हो सके ! काफी सोच विचार और दिमागी घोड़े दौड़ाने के बाद एक तरकीब हाथ लगी  बड़े भाई से , जो अनिवार्य आवश्यकता होने पर आपातकालीन परिस्थिति में ऐसे कारनामे किया करता था ! हमारे यहाँ खेत से पककर घर आने वाली नगदी फसलें जैसे - कपास , मुंग , सोयाबीन इत्यादी बाज़ार में बिक्री हेतु जाने से पहले कुछ दिनों तक घर के दालान में ही पड़े होते , सो वहां से आवश्यकता की पूर्ति भर का किलों-दो किलो माल उड़ा कर खुले बाज़ार में बेच कर काम चला लिया जाता था  ! किसी को रत्ती भर भी भनक नहीं लगती की पकी फसल के ढेर से एक- दो किलो माल गायब है !  मुझे यह जुगत अच्छी लगी लेकिन ये चोरी थी , चाहे अपने ही घर में क्यों न हो चोरी तो चोरी ही कही जाएगी ! मन तैयार नही हो रहा था लेकिन दिमाग मान- मन्नोवल किए जा रहा था कि यह चोरी नहीं कही जा सकती क्योंकि इससे मिलने वाली धनराशी का उपयोग पेन लेने में खर्च किया जायेगा और उसके इतर एक पाई का भी उपयोग अन्यत्र नही किया जायेगा , और पेन का उपयोग विद्यार्जन में होगा  जिसे पाने के लिए पूरी दुनिया के साथ हम भी प्रयासरत है ! दिमाग ने आखिरकार मन को मना लिया ! एक दिन जब  घर में कोई नही था , बिना किसी को भनक लगे , मौका पाकर एक-दो  किलों मुंग पोलीथिन की थैली में डालकर स्कूल के बैग में उड़ेल दिए और भारी बस्ता उठा कर निकल लिए स्कूल ! मन बहुत प्रसन्न था कि आज जेल पेन हाथ में आएगी , और इसी ख़ुशफ़हमी में डूबे हुए उन चोरी किये गए मुंग को  बेचकर पार लगाया और उससे प्राप्त धनराशी से एक जेल पेन खरीद ली ! बड़ा अच्छा गणित रहा कि जितने रूपये के मुंग बीके उतने ही रूपये की  जेल पेन आयी , सो मन पर यह बोझ नही रहा कि उन बचे पैसे का क्या करेंगे क्योंकि मन तो शुरुआत से ही मना कर रहा था ! एक बार उपयोग के बाद मुझे जेल पेन नही भायी , एक तो वह बहुत गाढ़ी चलने के कारण उनकी इंक बहुत जल्द खत्म हो गयी और दूसरा उसका पृष्ठ पर मूवमेंट अन्य बॉल पॉइंट पेन की अपेक्षा काफी स्लो और हार्ड था , इसलिए दोबारा कभी नहीं लिया , नही तो कई बार मूंग चोरी करने पड़ते और कभी परिजनों के हत्थे चढ़ जाते तो दफा 379 की कायमी हो जाती ।

    पेन का भी एक अपना अद्भुत संसार है , दुनिया में बहुतेरी महंगी-महंगी करोडो रूपये तक की पेन है ! वैसे यदि करोड़ रूपये की पेन रखने वाले व्यक्ति के दिमाग में ज्ञान के नाम पर दो कोड़ी का कचरा भरा हो तो वह लिखेगा भी क्या भला ! एक रूपये की पेन भी एक करोड़ रूपये की बात कह सकती है क्योंकि मूल्य तो विचारों , संवेदनाओ , नैतिक आदर्शो और मानवीयता के धरातल पर तय होता है जिसे कोई पेन लिखती है !

शेष फिर कभी ! 

- राजेश “राणा”

Category:Personal Experience



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Written by Rajesh Raana

◆ लेखक| कवि | विचारक | ◆