राष्ट्र निर्माता मजदूर आज मजबूर है,दर –दर की ठोकरे खाकर घर से दूर है |
न रहने का आशियाना न घर का ठिकाना,सब कुछ सहकर भी परिवार से दूर है|
मजदूर आज भी मजबूर है|
हजारो मिल पेदल चल कर बच्चो को कंधो पर लेकर,घर की राह पर पेदल चलने को मजबूर है |
न खाने को निवाला न जेब मे पैसा फिर भी अपने कृतव्य पथ पर निष्ठावान की तरह अडिग है |
क्योंकि ? राष्ट्र का कर्णधार है फिर भी सरकार के आगे मजबूर है|
बच्चे भूखे वो भी भूखा न दाल न आटा है |
सुनी सड्को पर खून का पसीना बहाकर,सारे सपने चकनाचूर है |
क्योंकि वह मजबूर है ?
उसकी दारुण व्यथा सुन कर प्रशासन भी मोंन है , कातर निगाहों से देख कर कब आयेगा ठिकाना
यह सोच कर मजबूर है |
जिसने बनाई इमारते, महल लेकिन उनमे रहने के लिए आतुर है |
क्योकि वह मजबूर है ?
यदि वह काम करना छोड़ दे तो दुनिया मे विकास अवरुद्ध हो जाएगा |
दो जून की रोटी के लिए तरस रहा उसकी सहनशीलता देखो, क्योंकि वह मजदूर मजबूर है ?
राजनीति की रोटी सेकने वालो के लिए वह एक दाव है ,पेर मे छाले व घाव है |
चिल चिलाती धूप में पैदल चलने के लिए मजबूर है , न खाना हे न पानी न छाँव है |
भगवान की अमूल्य धरोहर मजदूर आज भी मजबूर है |
(रघुवीर सिंह पंवार )
लेखक सम्पादत साप्ताहिक समाचार थीम
0 Followers
0 Following