एक टिटहरी सागर-तट पर, जब भी अण्डे देती थी।
कोई लहर वेग की आकर, अण्डों को हर लेती थी।।
कई बार जब यही हुआ तो, बढ़ न टिटहरी-कुल पाया।
अतिशय शोकित हुई टिटहरी, दुख उसके उर में छाया।।
कुम्भज ऋषि के पास टिटहरी, ने जाकर दुखड़ा रोया।
कहा कि दुख का करें निवारण, मैंने कष्ट बहुत ढोया।।
कुम्भज ऋषि को क्रोध आ गया, सुनकर पीर टिटहरी की।
सागर की यह हरकत उनको, कतई नहीं लगी नीकी।।
तपोनिष्ठ ऋषि ने सागर का, तत्क्षण कर आचमन लिया।
जनश्रुति है ऋषि ने सागर का, पलक झपकते पान किया।।
एक बूॅंद भी बचा न जल जब, तब सागर अति अकुलाया।
मनुज रूप धर ऋषि के सम्मुख, क्षमा माॅंगने वह आया।।
तब ऋषिवर ने मूत्र-मार्ग से, स्रवित किया सागर सारा।
इसीलिए तो तब से अब तक, सागर का जल है खारा।।
ऋषि ने वमन किया सागर-जल, कुछ विद्वज्जन हैं कहते।
पुराकाल में भारत भू पर, सिद्ध तपस्वी थे रहते।।
महेश चन्द्र त्रिपाठी