न जाने क्यूँ, मैं पिता को क्या समझता हूँ l
कभी खुश, कभी दुःख तो कभी दुखों का पहाड़ समझता हूँ
न जाने क्यूँ चल पड़ती है मेरी कलम, पिता को लिखते लिखते
नहीं उतार सकता पिता का कर्ज, जीवन में बिकते बिकते
कभी बरसात में चल पड़ा, तो कभी धूप भी न देखी
उत्सुकता से भर आया मन, देख पिता की नेकी
कभी पढ़ाने में कभी सिखाने में तो कभी कमाने में
पिता से बड़ा कोई नहीं भला इस ज़माने में
कभी दिन तो कभी रात लिख रहा हूँ
कभी यादें तो कभी पिता की हर बात लिख रहा हूँ
कभी पिता का क्रोध, तो कभी प्यार लिखता हूँ
कभी घर तो कभी संसार लिखता
कभी सुख तो कभी इच्छाओं को त्यागा है
जो जीवन भर दुखी रहा वो पिता अभागा है
कभी डर, तो कभी निडरता से खड़ा है
वो पिता ही तो है, जो हर मुसीबत से लड़ा है
कभी सुबह तो कभी शाम लिखता हूँ
मैं हर लेख, पिता के नाम लिखता हूँ
पिता ने जिन्दगी में बहुत दुःख झेले हैं
साथ पिता की यादें हैं, और हम अकेले हैं
कभी सूखा तो कभी बरसात लिखता हूँ
मैं पिता की हर बात, दिन-रात लिखता हूँ
परेशानियाँ आयीं हैं, कभी नहीं वह रोया है
मेहनत दिन-रात की है, नहीं कभी, वह सोया है
जीवन में बहुत कुछ खोकर, बहुत कम पाया है
वह पिता ही तो है, जिसने जीवन को चमकाया है
कभी धूप तो कभी छाँव लिख रहा हूँ
कभी शहर तो कभी, गाँव लिख रहा हूँ
कभी नाम तो कभी पिता का काम लिखता हूँ
कभी मान तो कभी सम्मान लिखता हूँ
कभी खेत तो कभी खलिहान लिखता हूँ
कभी कर्ज तो कभी एहसान लिखता हूँ
कभी भूख तो कभी प्यास लिखता हूँ
कभी विश्वास तो कभी पिता की आस लिखता हूँ
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