कहते है इंसान की ख्वाहिश कभी पूरी नहीं होती
और, और , और की चाह उसे ठीक से
जीने नही देती
कभी वो जरूरतों के पीछे भागते हैं तो
कभी जरूरत उनके पीछे
ये सिलसिला जीते जी चलता रहता है
बचपन से लेकर बुढ़ापे तक कि तलब बन जाती है
छोटे थे तो कितनी जल्दी बड़े हो जाय
इसके लिए परेशान थे
बड़े हुए तो समझ आया
बचपना ही ठीक था,,,
अब
ख्वाहिशों का समुंदर पीकर भी प्यासे हैं
कितनी नदियों को पार करके भी किनारे
कहां मिलते हैं
हैरान हूं बड़े होकर भी इस
बचपने पर की
फिर बचपन में लौटने की
लालसा जागी है
इतनी जिम्मेदारियों के बाद फिर
बेफिक्र होना चाहता है मन
ये लालसा कभी खत्म ही नहीं होती
और जिम्मेदारियां कभी पूरी नहीं होती
लेकिन बात ये है कि
लालसा कभी रुकती नहीं है
छोटे थे बड़े की चाह थी
बड़े होके फिर वहीं जाना चाहते हैं
हम जहां से उठे थे
उसी सारे गुणा गणित के अंक हासिल करके
मन फिर से शून्य हो
जाना चाहता है,,,,।
सार यही है कि यदि हम इसी में उलझे रहे तो
शून्य के आधार को नही समझ पाएंगे
क्योंकि अंत शून्य ही है।।
स्वरचित
Sunita tripathi अंतरम 🙏🏻
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