छायावाद के शीर्षस्थ साहित्यकार जयशंकर प्रसाद ने अपने नाटक 'स्कन्दगुप्त' में एक पात्र से कहलाया है,"भारत समग्र विश्व का है, और सम्पूर्ण वसुन्धरा इसके प्रेम-पाश में आबद्ध है। अनादिकाल से ज्ञान की, मानवता की ज्योति यह विकीर्ण कर रहा है। वसुन्धरा का हृदय- भारत -किस मूर्ख को प्यारा नहीं है? तुम देखते नहीं कि विश्व का सबसे ऊंचा शृंग इसके सिरहाने, और सबसे गंभीर तथा विशाल समुद्र इसके चरणों के बीच है? एक से एक सुंदर दृश्य प्रकृति ने अपने इस घर में चित्रित कर रक्खे हैं।" इसी नाटक का बहुचर्चित गीत है -
" हिमालय के आंगन में उसे प्रथम किरणों का दे उपहार,
उषा ने हॅंस अभिनन्दन किया और पहनाया हीरक हार ।"
प्रसाद जी के एक अन्य नाटक 'राज्यश्री' का एक पात्र सुएन च्वांग भारत भूमि पर पहुंचकर इतना प्रभावित हुआ कि कह उठा, “यह भारत का देव-दुर्लभ दृश्य देखकर मुझे विश्वास हो गया कि यही अमिताभ बुद्ध की प्रसव-भूमि हो सकती है।”
भारतवर्ष, आर्यावर्त, जम्बूद्वीप, अजनाभवर्ष आदि अनेक संज्ञाओं से अभिहित अपने देश से प्रसाद जी को इतना प्यार है कि अपनी सभी कृतियों में उन्होंने इसकी गौरव गाथा गायी है। 'चन्द्रगुप्त' नाटक में कार्नेलिया कहती है, "यह स्वप्नों का देश, यह त्याग और ज्ञान का पालना, यह प्रेम की रंगभूमि - भारतभूमि क्या भुलायी जा सकती है? कदापि नहीं। अन्य देश मनुष्यों की जन्मभूमि है; यह भारत मानवता की जन्मभूमि है।" वह गाती है -
" अरुण यह मधुमय देश हमारा।
जहाॅं पहुॅंच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।।"
इसी नाटक में विभिन्न पात्रों द्वारा कहलाया गया है कि भारतीय कृतघ्न नहीं होते, और भारतीय सदैव उत्तम गुणों की पूजा करते हैं।
" दो-ढाई हजार वर्ष पहले...... भारत की पवित्रता हजारों कोस से लोगों को वासना का दमन करना सिखाने के लिए आमंत्रित करती थी। आज भी आध्यात्मिक रहस्यों के इस देश में उस महती साधना का आशीर्वाद बचा है। अभी भी बोधिवृक्ष पनपते हैं! जीवन की जटिल आवश्यकता को त्याग कर जब काषाय पहने संध्या के पूर्व रंग में रंग मिलाते हुए ध्यान-स्तिमित-लोचन मूर्तियां अभी देखने में आती हैं, तब जैसे मुझे अपनी सत्ता का विश्वास होता है, और भारत की अपूर्वता का अनुभव होता है। .... और भारत के लिए तो मुझे पूर्ण विश्वास है कि इसकी विजय धर्म में है।" - यह कथन प्रसाद जी की कहानी 'आंधी' के एक पात्र का है।
उपन्यास 'कंकाल' में भारतीय नारी को सराहते हुए कहा गया है कि गृहणीत्व की जैसी सुन्दर योजना भारतीय स्त्रियों को आती है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। इतना आकर्षक, इतना माया -ममतापूर्ण स्त्री-हृदय-सुलभ गार्हस्थ्य जीवन और किसी समाज में नहीं। उपन्यास 'तितली' में शैला कहती है," पश्चिमी जीवन का यह संस्कार है कि व्यक्ति को स्वावलम्ब पर खड़े होना चाहिए। .... भारतीय हृदय में, जो कौटुंबिक कोमलता में पला है, परस्पर सहानुभूति की -सहायता की बड़ी आशाएं, परम्परागत संस्कृति के कारण, बलवती रहती हैं।"
काव्य कृति 'कानन कुसुम ' की एक अतुकांत कविता में प्रसाद जी का उत्कट देशप्रेम देखते ही बनता है। कविता का सार यह है कि हिमगिरि का एक रम्य शृंग है। प्रातः की रवि-रश्मियों से वह मणिमय हो उठा है। निकट ही काश्यप ऋषि कण्व का रमणीय आश्रम है। यहीं एक सुन्दर बालक सिंह शिशु से खेल रहा है। खोल-खोल मुख सिंह बाल! इस वीर बालक के औद्धत्य को देखकर सिंहिनी क्रोध से गरजने लगी। वह रोष से तनकर बोला क्रीड़ा में बाधा दोगी तो पीट दूॅंगा, चली जा, भाग जा। अरे, यह वीर बालक कौन है? यही 'भरत' वह बालक है, जिस नाम से "भारत" संज्ञा पड़ी इस वर भूमि की। शकुन्तला और दुष्यन्त का पुत्र है जिसने भारत का साम्राज्य स्थापित किया।
सर्वविदित है कि प्रसाद का सारा साहित्य आजादी के पूर्व का है। उन्होंने अपनी रचनाओं में अपनी पीड़ा को भी अभिव्यक्ति प्रदान की है। उन्हें दुख है कि फिरंगियों और विधर्मियों के कारण भारत पतनोन्मुख हुआ। आज चारों ओर पाप, कलह और द्वेष है। स्त्रियां विपथ पर जाने के लिए बाध्य की जा रही हैं। भारतवर्ष वर्णों और जातियों के बंधन में जकड़ कर कष्ट पा रहा है। नई सभ्यता की कौंध चमक रही है। ऐसे में उन्होंने लिखा -
" बहुत दिवस दुख महॅं बीते, दे सुख के अवसर ।
उदय होहु हिमगिरि पर भारत-भाग्य-दिवाकर ।।"
आज के परिवेश में भी, प्रसाद जी के ही शब्दों में, मैं भगवान से यही प्रार्थना करूंगा कि -
" भारत को सुखी बना दो, रहे न आरत ।
तुम नहिं भूलो इसे, तुम्हें नहिं भूले भारत ।।"
कहाॅं तक कहें? प्रसाद जी का देशप्रेम और उनकी साहित्य सेवा अद्भुत है, अतुलनीय है। वे सच्चे अर्थों में भारतमाता के सपूत थे। महाप्राण निराला के शब्दों में -
"किया मूक को मुखर,
लिया कुछ, दिया अधिकतर
पिया गरल पर किया जाति-
साहित्य को अमर ।"*
©® महेश चन्द्र त्रिपाठी