हर कार्य का एक समय होता है । समय पर किया गया कार्य सार्थक होता है । वर्षा अपने समय पर होती है । फूल अपने समय पर खिलते हैं । पेड़ों पर फल अपने समय पर लगते हैं और अपने समय पर ही पकते हैं । प्रत्येक ऋतु अपने समय पर आती है । समय पर की गई खेती अच्छी होती है । समय पर भोजन करने वाले लोगों का स्वास्थ्य अच्छा होता है । जिस तरह किसी स्वादिष्ट और पौष्टिक भोजन बनाने के लिए उसमें डाले जाने वाले नमक, तेल, हल्दी, मिर्च और मसालों को उचित समय पर, उचित अनुपात पर और उचित आँच पर उचित समय तक पकाना आवश्यक है, ठीक उसी तरह सभ्य समाज और उन्नत राष्ट्र के निर्माण के लिए भी देश के बच्चों को उचित समय पर संस्कारित करना अत्यावश्यक है । बच्चे आने वाले कल की तस्वीर होते हैं । आने वाले समय में देश की स्थिति कैसी होगी ? देश की शिक्षा नीति, आर्थिक नीति, सामाजिक व्यवस्था, न्याय प्रणाली, सुरक्षा संसाधन, स्वास्थ्य सेवा जैसे विकास और निर्माण कार्यों की दशा और दिशा क्या होगी ? यह सभी बातें बच्चों को दिए जाने वाले संस्कार पर निर्भर करता है । संस्कार हमारे व्यावहार का हिस्सा होती हैं । संस्कार ही हमारे विचारों को प्रभावित करती है । हमारा उठना-बैठना, चलना-फिरना, बोलना, शब्दों को बरतना, खाने-पीने का तौर-तरीका, कपड़ों का चयन और पहनने का ढंग के साथ-साथ हमारी अनेक भाव-भंगिमाएँ हमारे संस्कार का एक छोटा अंश भर होता है । इन अवयवों के आधार पर बाहरी रूप में किसी व्यक्ति को परखा तो जा सकता है कि वो कितना भद्र और सभ्य होगा, किन्तु वही व्यक्ति कितना सदाचार, सामाजिक, निष्ठावान, कर्तव्यपरायण, अनुशासनप्रिय, सत्यनिष्ठ और न्यायप्रेमी होगा उसके लिए उसकी नैतिकता को देखा-परखा जाता है । संस्कार के रूप में प्राप्त नैतिक मूल्य ही हमारी सोच, विचारधारा और सिद्धांतों का निर्माण करते हैं । किसी व्यक्ति की पहचान उसके संस्कार से होती है ।
संस्कार संस्कृति का एक अभिन्न अंग है । हरेक संस्कृति का अपना विशिष्ट लोकाचार होता है । लोकाचार एक सभ्य समाज की नींव होती है । लोकाचार के द्वारा ही सामाजिक संरचना, मूल्य-मान्यताएँ, आस्था, परम्परा, सामाजिक मर्यादा, धार्मिक अभ्यास, शिष्टाचार व्यवस्थित और नियंत्रित होती है । सामाजिक सद्भाव, सहयोग की भावना और भाईचारा को बनाए रखने में भी लोकाचार की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है । सूचना और तकनीकी विकास के इस युग में समाज का स्वरूप बहुत तेजी से बदल रहा है । कई परम्पराओं और मान्यताओं को तोड़कर समाज आगे बढ़ रहा है । कई विषयों को लेकर समाज की मानसिकता में परिवर्तन आया है । आज का समाज एक शिक्षित और जागरूक समाज है । पिछले कुछ दशकों से देश की साक्षरता दर में अकल्पनीय वृद्धि हुई है । विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हम विश्व के अन्य देशों की तुलना में कई वर्ष आगे चल रहे हैं । अर्थव्यवस्था के रूप में भी भारत विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यस्था के रूप में अपना दबदबा रखता है । भूमंडलीकरण और औद्योगिक क्रान्ति के इस युग में हम उन्नति के इतने चरम उत्कर्ष में तो पहुँच गए, किन्तु बहुत-से अमूल्य धरोहरों को खोते भी जा रहे हैं । भौतिक पूर्वाधारों का निर्माण और विकास ही किसी देश की उन्नति का द्योतक नहीं होता । यथार्थ में देश के नागरिकों का स्व:अनुशासन, सभ्याचार और लोक व्यावहार ही देश के सांस्कृतिक चरित्र को मुखरित करता है ।
वर्तमान परिदृश्य में देखें तो आज सामाजिक संरचना पूंजीवाद, बाज़ारवाद और भौतिक सुख-सुविधाओं की विलासिता के आडम्बर में आकंठ डूबी हुई है । सामाजिक समरसता और सहिष्णुता का चेहरा अब कहीं दिखाई नहीं देता । आज का समाज शिक्षित अवश्य है, किन्तु संस्कारित नहीं है । जो शिक्षा संस्कार नहीं देती वो एक तरह से समाज को विकृत ही करती है । शिक्षित होना और संस्कारित होना दोनों भिन्न विषय हैं । पहले की पीढ़ी शिक्षित नहीं थी, किन्तु संस्कारित अवश्य थी इसलिए समाज में मान-मर्यादा, शिष्टाचार और विनम्रता विद्यमान थी । आज की पीढ़ी के पास बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ हैं, अनेक तकनीकी कौशल है, ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में बहुत आगे है, धन है, भौतिक सुविधाएँ हैं, किन्तु संस्कार नहीं है । संस्कार के अभाव में पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी के बीच कहीं तारतम्य नहीं बैठ पा रहा है ।
आधुनिकीकरण और भौतिकवाद के चलते वर्तमान समय में परिवार का दायरा सिमट गया है । जब से समाज में एकल परिवार की अवधारणा ने अपनी पैठ बनाई है, उससे बच्चों में संस्कारों का हस्तांतरण लगभग रुक सा गया है । पहले संयुक्त परिवार में बच्चे बचपन से ही अनुशासन, रिश्तों की मर्यादा, मान-सम्मान, धैर्य, शालीनता, शिष्टाचार और चरित्र निर्माण जैसे नैतिक मूल्यों की शिक्षा अपने दादा-दादी, चाचा-चाची, ताओ-ताई, घर के बड़े-बुजुर्गों आदि से सिखते थे, अब वो परम्परा नहीं रही । महंगाई की मार इतनी है कि एक छोटे से परिवार के भरण-पोषण के लिए पति-पत्नी दोनों को काम करना पड़ रहा है । माँ के द्वारा जो संस्कार बच्चों को दिया जाता था, अब वो भी समाप्त होती जा रही है । इसका सबसे बड़ा प्रभाव बच्चों पर पड़ रहा है । एक तो संयुक्त परिवार के टूटने से पहले से ही बच्चे बड़े-बुजुर्गों के सानिध्य से दूर हो गए, दूसरे माँ-बाप दोनों नौकरी-पेशा में होने से वे उनके साथ भी ज्यादा समय नहीं बिता पाते । मनोवैज्ञानिक रूप से भी बच्चों में इसका बहुत गहरा असर पड़ता है । ऐसे परिवारों के बच्चों में चिड़चिड़ापन, अकेलापन, जिद्दी स्वभाव घर करता है । ऐसे बच्चे अनेक कुंठाओं से ग्रसित होते हैं । वे अपनी चीज़ों को अन्य लोगों के साथ साझा नहीं करना चाहते । उन्हें दूसरों की पसन्द-नापसन्द की परवाह नहीं होती । समाज में रहते हुए भी वे सामाजिक नहीं हो पाते । अभिभावकों को लगता है कि उन्होंने बच्चों को सब कुछ दिया है, तो बच्चे खुश होंगे । आप बच्चों को महंगे मोबाइल दीजिए, लैपटॉप/कंप्यूटर दीजिए, अनेक तरह के गैजेट्स दीजिए, गाड़ी दीजिए, जेब खर्च के लिए पैसे दीजिए; इससे उनके चिंतन और व्यावहार में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आता । महंगे विद्यालयों में पढ़ाने से, ट्यूशन/कोचिंग सेन्टर में भेजने से और अनेक तरह के तकनीकी प्रशिक्षण देने से आपके बच्चे काबिल अवश्य बन सकते हैं, किन्तु संस्कार के बिना वे एक संवेदनशील नागरिक नहीं बन सकते ।
वर्तमान समय में समाज में अनेक तरह की सामाजिक विकृतियाँ पनप रही हैं । बच्चे अपने माँ-बाप और बड़ों का कहना ही नहीं मानते । वे मोबाइल गेम्स और सोशल साइट्स पर अधिक व्यस्त रहते हैं । कई बच्चे तो अभिभावकों और शिक्षकों का अनादर करते हैं । कई परिवारों के बच्चे कुलत में फंसे हुए हैं । युवा पीढ़ी किसी देश की तैयार जनशक्ति होती है । भारत युवा शक्ति का देश है, किन्तु युवाओं में सहनशीलता, संयम और धैर्य नहीं है, न ही उनमें बात करने का सलीका है । वे गुन्डागर्दी और बदतमीजी करने में आगे रहते हैं । समाज में हिंस्रक प्रवृत्ति बढ़ गई है । लोग छोटी-छोटी बातों में लड़ने लगते हैं । युवा पीढ़ी के पास नैतिकता, बौद्धिकता और आलोचनात्मक चेत की कमी है । शिक्षित होने के बावजूद भी उनमें पाखण्ड और धार्मिक उन्माद हावी है । आधुनिक और फैशनेबल होने के नाम पर फूहड़ता और उच्छृंखलता का प्रदर्शन किया जा रहा है । समाज में चोरी, डकैती, लूटपाट, मार-काट, बलात्कार, अपहरण, मानव तस्करी, स्नेचिंग, मॉब लिंचिंग, डिजिटल फ्रॉड, साइबर क्राइम जैसे अपराध बढ़ गए हैं । आए दिन समाचार-पत्र आपराधिक घटनाओं से भरे रहते हैं । टेलीविजन में दिखाए जाने वाले समाचारों में भी कई बार ऐसी सूचनाओं को दिखाया जाता है जहाँ अच्छे-खासे पढ़े-लिखे लोग गम्भीर अपराधों में पाए जाते हैं । अच्छे घरों के बच्चे भी दुर्व्यसन से उभर नहीं पा रहें और वे आत्महत्या जैसे जघन्य अपराध करने से भी नहीं चुकते । समाज में डर और त्रास व्याप्त है । समाज भ्रष्टाचार, दुर्व्यवहार और व्यभिचर में लिप्त है । लोगों में विनम्रता, संवेदनशीलता, सहजता और सेवा भाव का अभाव है । रिश्तों की मर्यादा समाप्त हो रही है । शब्दों की दरिद्रता इतनी है कि लोग कहीं भी, किसी भी अवसर पर, किसी को भी गाली देने में थोड़ा भी संकोच नहीं करते । अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर कोई भी कुछ भी बोले जा रहा है । शिक्षित समाज में सामाजिक मर्यादा, लोक-लाज और शालीनता जैसे संस्कारों का पतन हो रहा है ।
देश में जिस तरह की सामाजिक व्यवस्था और शैक्षिक वातावरण पनप रहा है, इसे समय रहते ही सुधारना होगा । जब तक नैतिक मूल्यों, सामाजिक मर्यादाओं, व्यावहारिक ज्ञान को शिक्षा में सम्मिलित नहीं किया जाएगा, तब तक सामाजिक विसंगतियों का उन्मूलन नहीं किया जा सकता । जब तक बच्चों को संस्कारों से नहीं जोड़ा जाएगा, वे केवल यांत्रिक संसाधन बनकर तैयार होंगे, न कि एक जिम्मेदार और संवेदनशील मनुष्य । अभिभावक होने के नाते हमें अपने बच्चों में स्टेटस का लेबल नहीं लगाना चाहिए, बल्कि उन्हें सामाजिक सेवा में लगाना चाहिए । बचपन से ही उन्हें अमीर-गरीब, काले-गोरे, साम्प्रदायिक विभेद, बड़ी जाति-छोटी जाति आदि जैसे वर्ग-भेद में न बाँटकर सामाजिक एकता और भाईचारे का ज्ञान और सेवा संस्कार देना चाहिए ।
बचपन बहुत जल्दी बीत जाता है, किन्तु यह वो अमूल्य समय होता है जहाँ बच्चों के भविष्य की नींव रखी जाती है । बचपन आने वाले कल का द्वार खोलती है । बचपन में जो संस्कार बच्चा प्राप्त करता है वही उसके सर्वांगीण व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं । संस्कार लोक व्यावहार का अंग है जो समाज में व्यक्ति को संयमित, संतुलित और सम्यक रूप से जीवन निर्वाह करने के गुण सिखाता है । बच्चे देश के कर्णधार होते हैं । देश का भविष्य बच्चों के नन्हें हाथों में अंकुरित होता है । एक समृद्धशाली देश के निर्माण में बच्चों का संस्कारित होना अत्यावश्यक है । एक गौरवशाली और सशक्त देश की परिकल्पना में बचपन की अवहेलना नहीं की जा सकती । इस आयु वर्ग के बच्चों में ग्रहण करने और सीखने की असाधारण क्षमता होती है । अच्छे संस्कार में पला-बढ़ा बच्चा जीवन के विषम परिस्थितियों में भी सत्मार्ग और न्याय को ही चुनता है । भौतिक सुविधाओं को भोगने की लालसा से परे वो समाजोत्थान और देशभक्ति को समर्पित होता है ।
बच्चों में नैतिक मूल्यों के सृजन करने में शिक्षकों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है । बच्चे अपने परिवार से अधिक समय शिक्षकों के साथ व्यतीत करते हैं । छोटे बच्चों में नकल करने की बालसुलभ प्रवृत्ति तीव्र होती है । यह वो संवेदनशील समय होता है जब बच्चे अपने शिक्षकों को देखकर, सुनकर सिखते हैं और उनसे प्रभावित होकर उनकी तरह नैतिकवान बनने का अनुसरण करते हैं । बच्चों के लिए शिक्षक उनके आदर्श होते हैं । शिक्षक जो सिखाते हैं वही ज्ञान आजीवन बच्चों के व्यक्तित्व को प्रभावित करता है । समाज में एक शिक्षक की बहुत बड़ी गरिमा होती है । समाज को सही दिशा और मार्गदर्शन देने में शिक्षक की भूमिका अतुलनीय है । महान अर्थशास्त्री चाणक्य ने कहा था कि “शिक्षक कभी साधारण नहीं होता । प्रलय और निर्माण दोनों उसकी गोद में पलते हैं ।” बच्चों के चिंतन में विद्यालय का वातावरण और शिक्षक का स्वभाव बहुत महत्त्व रखता है ।
किसी भी देश में शिक्षक देश के सबसे सम्मानित और श्रेष्ठ नागरिक होते हैं । आज शिक्षा व्यवस्था की जो दुर्दशा है, उससे समाज में शिक्षकों के प्रति लोगों की धारणा में बदलाव आया है । शिक्षा का व्यवसायीकरण होने से अभिभावकों के बीच भी शिक्षकों की प्रतिष्ठा अब पहले जैसी नहीं रही । हमारे यहाँ शिक्षकों को कमतर समझा जाता है । समाज में ऐसी धारणा बन चुकी है कि जो जीवन में कुछ नहीं बन पाता, वो अन्त में शिक्षक बनता है । पेशे के रूप में भी शिक्षक को हीन दृष्टिकोण से देखा जाता है । वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में शिक्षक जैसे मर्यादित व्यक्ति को भी तुच्छ बना दिया गया है । यथार्थ में शिक्षक वर्ग के कन्धों पर सबसे बड़ी जिम्मेदारी होती है । देश को योग्य मानव संसाधन तैयार करके देने में शिक्षकों की बहुत बड़ी भूमिका होती है । शिक्षक ही वो वर्ग है जो पूरी व्यवस्था को बदल सकता है, बशर्ते कि शिक्षक भी आदर्श नीति का पालन करे । दुनिया बहुत तेजी से बदल रही है । ज्ञान-विज्ञान, सूचना और तकनीक के नए-नए माध्यमों का आविष्कार हो रहा है । भूमंडलीकरण और बाज़ारवाद के इस युग में जितनी तीव्र गति से अच्छी बातें हमारी संस्कृति में प्रवेश कर रही हैं, उसके साथ-साथ कई नकारात्मक आदतें भी आ रही हैं । ऐसी स्थिति में शिक्षक ही वो सशक्त माध्यम है, जो बच्चों को वैश्विक शिक्षा के साथ-साथ भारतीय परम्परा, संस्कृति, नैतिक मूल्यों और संस्कार से जोड़कर देश निर्माण के लिए भावी पीढ़ी को तैयार करने में एक मजबूत सेतु का कार्य कर सकती है ।
राजकुमार श्रेष्ठ
संयुक्त सम्पादक, हिन्दुस्तानी भाषा अकादमी
(यह लेख 'Ayra लेखन प्रतियोगिता -जून 2024’ हेतु यहाँ सादर प्रेषित है। )
लेखक, कवि और अनुवादक
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