कुछ औरते ओढ़ कर ख़ामोशी की चादर
उसी दहलीज पर लौटती हैं
जिसे लाँघते वक्त
सोचा था अब नही लौटूंगी
मगर वे ये न समझ पाई
कि वो तो जा ही नहीं पाई
वो तो अपने परिवारकी धरा है , जिस बीज को उसने पेड़ बनाया उसे कैसे छोड़ कर जा
सकती थी
वही घर के बाहर पेड़ की छांव में
बैठ गई थीं और वही बैठी रही थी सांझ तक
उससे बाते करती इक सखी की तरह
उसी को अपने सारे सुख दुख को सुनाती
बैठी रही थीं
और साझ ढले फिर लौट आती है
अपनी कर्म भूमि पर जाने कितने ही रूपों के साथ जननी, पत्नी ,बहू, भाभी आदि के साथ
अधिकार स्वरूप
अपना जी हल्का करके खुद को समझा कर
खुद को सहेजते और सम्हालते हुऐ
लौट आती है फिर उसी दहलीज पर
इस बार बाहर से लाँघती है
अंदर की तरफ
स्वरचित
Sunita tripathi अंतरम 🙏🏻