यह ऐसा महाघातक खरपतवार है जो न केवल कृषि के लिए बल्कि मानव स्वास्थ्य और पशुओं के लिए भी बेहद खतरनाक है। यह खरपतवार आम तौरपर ‘गाजर घास’ के नाम से जाना जाता है। यह देश की खेतीबाड़ी के लिए ‘नासूर’ बन चुका हैँ यह खरपतवार देश के कोने-कोने में पहुँच चुका है और अब इसका प्रकोप धीरे-धीरे चिन्ताजनक स्थिति तक बढ़ चुका है। एक आकलन के अनुसार यह अति घातक खरपतवार देशी की 350 लाख हेक्टेयर से भी अधिक जमीन पर अपनी पैठ बना चुका है। देशभर में इसे गाजर घास, कोझियो घास, गंधी बूंटी, सफेद टोपी, चटक चांदगी, बेकार घास, भूण्डलियो घास आदि कई नामों से जाना जाता है। मूलत: इसका नाम ‘पार्थेनियम हिस्टोफोरस’ है। चूंकि यह खरपतवार वर्ष 1950 के दशक में कांग्रेस के शासनकाल में अमेरिका से आयात की गई गेहूं की किस्म पीएल-480 के साथ आया था तो इस खरपतवार को कई स्थानों पर आम बोलचाल की भाषा में ‘कांग्रेस घास’ भी कहा जाने लगा। तब किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी कि आगे चलकर यह खरपतवार अत्यन्त घातक सिद्ध होगा और ऐड़ी-चोटी का जोर लगाने के बावजूद इससे छुटकारा पाना संभव नहीं होगा।
कितना खतरनाक है यह खरपतवार ?
गाजर घास खरपतवार सभी खरपतवारों में सबसे घातक और भयंकर नुकसानदायक है। अन्य खरपतवारों का प्रयोग पशु चारे अथवा वर्मी कम्पोस्ट अर्थात खाद बनाने आदि किसी न किसी रूप में प्रयोग किया जा सकता है। लेकिन, गाजर घास को छुना भी किसी अभिशाप से कम नहीं है। यह खरपतवार किसी किसी विष से कम नहीं है। यह न केवल कृषि के लिए, बल्कि पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए भी अत्यन्त खतरनाक है। कृषि वैज्ञानिकों ने लंबे एवं गहन शोध के बाद पाया कि कि गाजर घास खरपतवार कृषि की उपज को 40 फीसदी तक कम कर देता है अर्थात लगभग आधी फसल तक चौपट कर डालता है। गाजर घास के सफेद फूलों के परागकण निरन्तर हवा में मिलते रहते हैं, जिससे पर्यावरण न केवल प्रदूषित होता है, बल्कि यह त्वचा एवं सांस के रोगों का संवाहक भी बनता है। यह शरीर में खाज-खुजली, सूजन एवं जलन पैदा करता है और क्षय, दमा एवं अस्थमा का भंयकर रोग का शिकार बनाता है। गाजर घास से पैदा हुई एलर्जी एवं किसी भी तरह का रोग कई बार लाईलाज भी बन जाता है और उनका सहज उपचार संभव नहीं हो पाता है। पशु वैसे तो गाजर घास को बिल्कूल नहीं खाते हैं, लेकिन यदि गलती से यह पशु के पेट में चला जाए तो यह एक विष की तरह अपना असर दिखाता है।
कहां-कहां मिलता है यह खतरनाक खरपतवार ?
गाजर घास से लगभग सभी लोग परिचित होंगे। यह दूसरी बात है कि इसे अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है। इस खरपतवार से ग्रामीण एवं शहरी दोनों क्षेत्रों के लोग कभी न कभी जरूर सम्पर्क में आते हैं। क्योंकि इस खरपतवार ने अपने प्राकृतिक गुणों के चलते लगभग हर स्थान पर अपनी उपस्थिति दर्ज कर ली है। खाली पड़े खेत हों या खेती की मेंढ़, नदी-नाले हों या फिर कूंए-तालाबों के किनारे, जमीन उपजाऊ हो या बंजर, धरती सूखी हो अथवा गीली, खाली पड़ा प्लॉट हो या फिर गन्दे नाले, बाग-बगीचे हों या फिर सडक़ों के किनारे, स्कूल-कॉलेजों के मैदान हों या फिर जलघर का स्थान, गाँव अथवा शहर का बाहरी इलाका हो अथवा बिजली के खम्बे, छायादार पेड़ हो या फिर मरूस्थलीय इलाका गाजर घास खरपतवार लगभग हर जगह मिलेगा। यह दूसरी बात है कि अधिकतर लोगों ने गाजर घास का नाम जरूर सुना हो लेकिन, उन्हें इस अत्यन्त खतरनाक खरपतवार के अति घातक दुष्परिणामों की जानकारी न हो। यह भी हो सकता है कि कुछ लोगों को गाजर घास की पहचान ही न हो।
कैसा होता है यह विषैला खरपतवार ?
गाजर घास का पौधे की ऊँचाई 1 से 1.5 मीटर तक होती है। इसका तना रोंयेदार होता है और घनी शाखाओं वाला होता है। इसके पत्ते गाजर के पत्तों के अनुरूप होते हैं। इस खरपतवार के छोटे-छोटे सफेद फूल होते हैं। यह मानसून के दौरान बेहद तेजी से फैलता है। एक पौधे से 25,000 से 40,000 नए बीज उत्पन्न हो जाते हैं। एक वर्ग मीटर जमीन में 33 लाख परागकण तक पैदा हो जाते हैं। इन बीजों का अंकुरण 10 घण्टे के प्रकाशकाल में 25 से 30 डिग्री सैल्सियस तापमान के बीच होता है। गाजर घास खरपतवार के पौधे का सम्पूर्ण जीवनकाल 3 से 4 महीने के बीच होता है। यह खरपतवार हर तरह की जमीन और हर तरह की स्थिति में अंकुरित हो सकता है एवं आसानी से पनप सकता है। यह पौधा उस जमीन पर भी आसानी से अपना साम्राज्य स्थापित कर लेता है, जहां कुछ भी पैदा न होता हो। इसके पौधे के अति सूक्ष्म बीजों को जमीन में गिरने के बाद किसी भी तरह का वातावरण, पानी अथवा मौसम मिले, वह आसानी से अंकुरित हो जाते हैं और बहुत जल्द घने-गहरे हरे पौधों के रूप में विकसित हो जाते हैं।
देश के कोने-कोने तक कैसे फैला यह जहरीला खरपतवार ?
कृषि, पर्यावरण एवं पशुओं को गाजर घास जैसे अति घातक खरपतवार के भयंकर नुकसान से बचाने के लिए इस खरपतवार का उन्मूलन बेहद जरूरी है। जब तक इस खरपतवार का एक भी पौधा कहीं भी सुरक्षित है, तब तक इसके घातक कुप्रभावों का सामना करने की नौबत बनी रहेगी। कमाल की बात यह है कि गाजर घास पहली बार वर्ष 1955 में पूना (महाराष्ट्र) में व्यापक चर्चा में आया था। तब से लेकर आज तक इस खरपतवार के नाश के लिए व्यापक उन्मूलन जागरूकता कार्यक्रम चलाये जा चुके हैं और अनेक तरह के उपाय किये जा चुके हैं। लेकिन, इसके बावजूद इस खरपतवार का उन्मूलन तो बहुत दूर की बात है, उलटे इसने देश के कोने-कोने में ही नहीं समुद्र पार केन्द्रशासित प्रदेश अण्डेमान-निकोबार तक अपनी पैठ मजबूती से स्थापित कर डाली। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि इस खरपतवार के प्रति जागरूकता अभियान उतना व्यापक नहीं हो पाया, जितना कि होना चाहिये था। जब तक गाजर घास का एक भी पौधा कहीं भी किसी भी कोने में सुरक्षित है, तब तक इससे पूरी तरह छुटकारा नहीं मिल सकेगा।
गाजर घास से छुटकारा पाने के उपाय !
गाजर घास का उन्मूलन सहज संभव नहीं है। एक पौधा उखाड़ो तो दर्जनों नए पौधे उग आते हैं। ऐसा इसीलिए होता है, क्योंकि इस पौधे पर फूल आने के बाद इसके परागकण अनियंत्रित हो जाते हैं। इस घातक खरपतवार से पूर्णत: छुटकारा पाने के लिए मुख्यत: चार तरीके हैं।
गाजर घास उन्मूलन के दौरान सावधानियाँ !
गाजर घास उन्मूलन के दौरान कुछ सावधानियाँ बरतना बेहद जरूरी है, वरना कई भयंकर दुष्परिणामों का सामना करना पड़ सकता है।
वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं समीक्षक (स्वतंत्र)