सपने का प्रतिबिंब हृदय पर अब-तक छाया हैं....

जीवन से......पाना हैं



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सपने का प्रतिबिंब हृदय पर अब-तक छाया हैं,
कुछ धुंधला सा जो बीते यादों का साया हैं,
बीते हुए पल का मन में कब से चलता अंतर्द्वंद्व,
उलझ गया जो सुलझ रहा नहीं जीवन का छंद।।


उर्मित उपवन सा बन जाने की मन में अभिलाषा,
किन्तु द्वंद्व, समय केंद्र पर बदली जीवन की भाषा,
हृदय विकल होकर  फिर सुलझा रहा हूं छंद,
होकर व्याकुल भाव तोड़ने को उद्धत हूं तट-बंध।।


चलने को जीवन के संग थामकर हाथों हाथ,
इच्छित मिल जाए वरदान मिले जीवन का साथ,
उल्लासित हो फिर पढ़ने बैठूं जीवन-वैभव का ग्रंथ,
हो पथिक धर्म का बोध, ऐसा हो जाए अनुबंध।।


अब तक जो दुविधा का जाल फैला दूर तक हैं,
भ्रमित भी हूं पथ पर जो बाधाओं का ज्वर हैं,
मन उलझन के जाले में लिपटा, कसता जाए फंद,
नाहक अब तक का सेवीत करता रहा हूं द्वंद्व।।


बीता कल-कुछ हलचल सपने बनकर आया हैं,
उपमानों का स्वरूप बनाकर मुझको भरमाया हैं,
आशा और निराशा के दल-बल से बना हुआ हूं दंग,
उलझा हुआ बीते का अनुभव, उपज रहा हैं दंभ।।


मानव बनने की बात, जीवन का मिल जाए साथ,
वह बीत चुका हैं रात, अब पथ का बदले तो हालात,
परिभाषित कर लूं खुद को लेकर सार्थकता का सौगंध,
होकर व्याकुल भाव तोड़ने को उद्धत हूं तट-बंध।

Category:Poem



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Written by मदन मोहन" मैत्रेय