महानगर के पास मन नहीं
न ही मनोविज्ञान
संवेदनशून्यता बन गई
है इसकी पहचान
महानगर का हर मनुष्य ज्यों
मूल्यवान रोबोट
तना तनावों में रहता वह
परिजन करते चोट
जारी रहता जिजीविषा का
पल-अनुपल अवसान
महानगर के पास मन नहीं, न ही मनोविज्ञान
सृजन नहीं उत्पादन में रत
रहता हर बीमार
उर्वशियों के सम्मुख सकता
हर आवरण उतार
लेती लूट निमिष भर में ही
इसे कृत्रिम मुसकान
महानगर के पास मन नहीं, न ही मनोविज्ञान
यांत्रिकता कर देती इसकी
हर अच्छाई न्यून
अम्बर से अवसाद बरसते
खिलें न हृदय प्रसून
आरोपित संस्कारों से हर
आनन रहता म्लान
महानगर के पास मन नहीं, न ही मनोविज्ञान।
महेश चन्द्र त्रिपाठी