ठाकुर जी का मुकुट

भक्ति

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14 Jun '24
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एक समय श्री ठाकुर मन्दिर के महन्त जो की प्रभु के बहुत प्रिय भक्त भी थे, अपने कुछ शिष्यों को साथ लेकर दक्षिण में तीर्थ दर्शन करते हुए एक नगर में पहुँचे। संध्या का समय था, मार्ग में बहुत ही रमणीय उपवन देख महन्त जी का मन हुआ यही कुछ देर विश्राम कर, भोजन प्रसाद बनाकर हरिनाम संकीर्तन किया जाये।

         संयोग से वह स्थान एक वेश्या का था, वेश्या वही पास के भवन में रहती थी। महन्त जी और उनके शिष्यों को इस बात का पता नहीं था कि जिस जगह वह रुके हैं, विश्राम व भोजन प्रसादी कर रहे हैं वो स्थान एक वेश्या का है। वेश्या भी दूर से अपने भवन से हरि भक्तो की क्रियाओं का आनन्द ले रही थी।
         द्वार पर बहुत सुन्दर-सुन्दर श्वेत वस्त्र धारण किये हुए, अपने साथ अपने ठाकुर जी को भी लाये, आज मानो सन्तों के प्रभाव मात्र से पापआसक्त उस वेश्या के हृदय में भी प्रभु का प्रेम प्रस्फुटित हो रहा हो। स्वयं को बड़भागी जान उसने सन्तों को विघ्न न हो ये जानकर तथा अपने बारे में कुछ न बताकर दूर से ही अपने भवन से ठाकुर जी के दर्शनों का आनन्द लेती रही।

         जब सभी सन्तों का भोजन प्रसाद व संकीर्तन समाप्त हुआ तो अन्त में वह वेश्या ने एक थाल में बहुत सारी स्वर्ण मुद्राएँ लेकर महन्त जी के समक्ष प्रस्तुत हुई और महन्त जी को प्रणाम किया व बताया की ये स्थान मेरा ही है, मैं यहाँ की मालकिन हूँ। महन्त जी को बड़ी प्रसन्नता हुई ये जानकर और आभार व्यक्त करते हुए उन्होंने भी कहा कि यह बहुत ही रमणीय स्थान है, हमारे ठाकुर जी को भी बड़ा पसन्द आया है यह स्थान, संकीर्तन में भी बड़ा मन लगा।
         अब वेश्या ने वो स्वर्ण से भरा हुआ थाल महन्तजी की सेवा में प्रस्तुत किया। सचे सन्तों का स्वाभाव होता है वो बिना जाने किसी भी अयोग्य व्यक्ति का धन या सेवा नहीं लेते हैं, और शास्त्र भी अनुमति नहीं देता है। अतः महन्त जी ने उस वेश्या से कहा हम बिना जाने ये धन स्वीकार नहीं कर सकते, आपने किस तरह से यह धन अर्जित किया है?

         वेश्या ने भी द्वार पर आये सन्तों से झूठ न कहकर सारी बात सच-सच बता दी की, मैं एक वेश्या हूँ, समाज के आसक्त पुरुषों को रिझाती हूँ, उसी से मैंने यह धन अर्जित किया है। इतना कहकर वह महन्त जी के चरणों में पूर्ण समर्पण करते हुए फुट-फुट कर रोने लगी, व महन्तजी से श्री ठाकुरजी की भक्ति का दान देने का अनुग्रह करने लगी।

         महन्त जी को भी दया आयी उसके इस अनुग्रह पर, लेकिन वे बड़े धर्म संकट में पड़ गये, यदि वेश्या का धन स्वीकार किया तो धर्म की हानि होगी और यदि शरण में आये हुए को स्वीकारा नहीं, मार्ग नहीं दिखाया तो भी सन्त धर्म की हानि।
         अब महन्त जी ने अपने ठाकुर जी का ध्यान किया और उन्ही को साक्षी कर वेश्या के सामने शर्त रखी और कहा–हम तो ये धन स्वीकार नहीं कर सकते यदि तुम हृदय से अपने इस बुरे कर्म को छोड़ना ही चाहती हो तो ऐसा करो इस पाप कर्म से अर्जित की हुई सारी सम्पत्ति को तुरन्त बेचकर जो धन आये उससे हमारे ठाकुर जी के लिए सुन्दर सा मुकुट बनवाओ। यदि हमारे प्रभु वह मुकुट स्वीकार कर ले तो समझ लेना उन्होंने तुम्हें माफ करके अपनी कृपा प्रदान की है।

         वेश्या का मन तो पहले ही निर्मल हो चुका था, महन्त जी की आज्ञा शिरोधार्य कर तुरन्त ही सम्पूर्ण संपत्ति बेचकर उसने ठाकुर जी के लिये ३ लाख रुपये का सुन्दर मुकुट बनवाया। कुछ ही दिनों में वेश्या ने मुकुट बनवाकर अपने नगर से महन्त जी के साथ ठाकुर जी मन्दिर के लिये प्रस्थान किया।
         मन्दिर पहुँचते ही जब यह बात समस्त ग्रामवासीयों और मन्दिर के पुजारियों को पता चली की अब वेश्या के धन से अर्जित मुकुट ठाकुर जी धारण करेंगे तो सभी अपना-अपना रोष व्यक्त करने लगे, और महन्त जी और उस वेश्या का मजाक उड़ाने लगे। महन्त जी सिद्ध पुरुष थे और ठाकुर जी के सर्वविदित प्रेमी भक्त भी थे तो किसी ने उनका विरोध करने की चेष्ठा नहीं की।

         अब देखिये जैसे ही वो वेश्या मन्दिर में प्रवेश करने लगी, द्वार तक पहुँची ही थी की पूर्व का पाप बीच में आ गया, वेश्या वहीं "रजस्वला" हो गई... माथा पीट लिया अपना, फुट फुटकर रोने लगी, मूर्छित होके भूमि पे गिर पड़ी।
         'हाय महा-दुःख, सन्त की कृपा हुई, ठाकुर जी का अनुग्रह प्राप्त होने ही वाला था की रजस्वला हो गई, मन्दिर में जाने लायक ही न रही'–सब लोग हसीं उड़ाने लगे, पुजारी भी महन्त जी को कोसने लगे 
         अब महन्त जी भी क्या करते, उन्होंने वेश्या के हाथ से मुकुट लेकर स्वयं ठाकुर जी के गर्भगृह प्रवेश कर श्री ठाकुर जी को मुकुट पहनाने लगे। इधर महन्त जी बार-बार मुकुट प्रभु के मस्तक पर धराए और ठाकुर जी धारण ही ना करें, मुकुट बार-बार ठाकुर जी के मस्तक से गिर जाये।
         अब तो महन्त जी भी निराश हो गये सोचने लगे हमसे ही बहुत बड़ा अपराध हुआ है, शायद प्रभु ने उस वेश्या को स्वीकार नहीं किया, इसलिये ठाकुर जी मुकुट धारण नहीं कर रहे हैं।

         अपने भक्त को निराश देखकर ठाकुर जी से रहा नहीं गया। अपने श्री विग्रह से ही बोल पड़े–'बाबा आप निराश मत हों, हमने तो उसी दिन उस वेश्या को स्वीकार कर लिया था जिस दिन आपने उसे आश्वासन देकर हमारे लिए मुकुट बनवाने को कहा था।'
         महन्तजी ने कहा–'प्रभु जब स्वीकार कर ही लिया है तो फिर उस बेचारी का लाया हुआ मुकुट धारण क्यों नहीं कर रहे हैं ?'
         ठाकुर बोले–'मुकुट तो हम उसी वेश्या के हाथ से धारण करेंगे, इतने प्रेम से लायी है तो पहनेगे भी उसी के हाथ से, उसे तो तू बाहर ही छोड़कर आ गया और खुद मुकुट पहना रहा है मुझको!'

         महन्त जी ने कहा–'प्रभु जी वो रजस्वला है, वो मन्दिर में नहीं प्रवेश कर सकती।'
         अब तो ठाकुर जी जिद करने लगे–'इसी समय लाओ हम तो उसी के हाथ से पहनेंगे मुकुट।'
         मन्दिर के समस्त पुजारियों ने प्रभु की ये आज्ञा सुन दाँतो तले उंगलिया दबा ली, सब विस्मित से हो गये, सम्पूर्ण मन्दिर में हाहाकार मच गया, जिसने सुना वो अचंभित हो गया। ठाकुर जी की आज्ञा को शिरोधार्य कर सैकड़ो लोगो की उपस्थिति में उस वेश्या को सम्मान पूर्वक मन्दिर में प्रवेश करवाया गया।
         अपने हाथो से वेश्या ठाकुर जी को मुकुट धारण कराने लगी, नैनो से अविरल अश्रु की धाराऐं बह रही थी। कितनी अद्भुत दशा हुई होगी... ज़रा सोचो! ठाकुर जी भक्त की इसी दशा का तो आनन्द ले रहे थे।

         ठाकुर जी का श्री विग्रह बहुत बड़ा होने के कारण ऊपर चढकर मुकुट पहनाना पड़ता है, भक्त के अश्रु से प्रभु के सम्पूर्ण मुखारविन्द का मानो अभिषेक हो गया। वेश्या के मुख से शब्द नहीं निकल रहे, नयन अविरल अश्रु बहा रहे है, अवर्णीय दशा है। 
         आज ठाकुर जी ने उस प्रेम स्वरूप भेट स्वीकार करने हेतु अपना मस्तक नीचे झुका दिया और मुकुट धारण कर उस वेश्या को वो पद प्रदान किया जिसके लिए बड़े-बड़े देवता, सन्त-महात्मा हजारो वर्ष तप-अनुष्ठान करते हैं पर उन महाप्रभु का अनुग्रह प्राप्त करने में असमर्थ रहते हैं।
         कोटि-कोटि वन्दन है ऐसे सन्त को जो उस अन-अधिकारी वेश्या पर अनुग्रह कर श्री गोविन्द के चरणों का अनुसरण करवाया!
         वास्तव में प्रभु का ये ही शाश्वत सत्य स्वरूप है, सिर्फ और सिर्फ प्रेम से ही रिझते हैं, लाख जतन करलो, हजारो नियम कायदे बनालो परन्तु यदि भाव पूर्ण भक्ति नहीं है तो सब व्यर्थ है।

         दीनदयाल, करुणानिधान प्रभु तक जब किसी भक्त की करुणा पुकार पहुँचती है तो अपने आप को रोक नहीं पाते और दौड़े चले आते हैं निजभक्त के पास।
         प्रभु तो स्वयं प्रेम की डोरी में स्वयं बंधने के लिए तत्पर रहते हैं परन्तु उन्हें निश्चल प्रेम में बाँधने वाला कोई विरला ही होता है
 

एक समय श्री ठाकुर मन्दिर के महन्त जो की प्रभु के बहुत प्रिय भक्त भी थे, अपने कुछ शिष्यों को साथ लेकर दक्षिण में तीर्थ दर्शन करते हुए एक नगर में पहुँचे। संध्या का समय था, मार्ग में बहुत ही रमणीय उपवन देख महन्त जी का मन हुआ यही कुछ देर विश्राम कर, भोजन प्रसाद बनाकर हरिनाम संकीर्तन किया जाये।

         संयोग से वह स्थान एक वेश्या का था, वेश्या वही पास के भवन में रहती थी। महन्त जी और उनके शिष्यों को इस बात का पता नहीं था कि जिस जगह वह रुके हैं, विश्राम व भोजन प्रसादी कर रहे हैं वो स्थान एक वेश्या का है। वेश्या भी दूर से अपने भवन से हरि भक्तो की क्रियाओं का आनन्द ले रही थी।
         द्वार पर बहुत सुन्दर-सुन्दर श्वेत वस्त्र धारण किये हुए, अपने साथ अपने ठाकुर जी को भी लाये, आज मानो सन्तों के प्रभाव मात्र से पापआसक्त उस वेश्या के हृदय में भी प्रभु का प्रेम प्रस्फुटित हो रहा हो। स्वयं को बड़भागी जान उसने सन्तों को विघ्न न हो ये जानकर तथा अपने बारे में कुछ न बताकर दूर से ही अपने भवन से ठाकुर जी के दर्शनों का आनन्द लेती रही।

         जब सभी सन्तों का भोजन प्रसाद व संकीर्तन समाप्त हुआ तो अन्त में वह वेश्या ने एक थाल में बहुत सारी स्वर्ण मुद्राएँ लेकर महन्त जी के समक्ष प्रस्तुत हुई और महन्त जी को प्रणाम किया व बताया की ये स्थान मेरा ही है, मैं यहाँ की मालकिन हूँ। महन्त जी को बड़ी प्रसन्नता हुई ये जानकर और आभार व्यक्त करते हुए उन्होंने भी कहा कि यह बहुत ही रमणीय स्थान है, हमारे ठाकुर जी को भी बड़ा पसन्द आया है यह स्थान, संकीर्तन में भी बड़ा मन लगा।
         अब वेश्या ने वो स्वर्ण से भरा हुआ थाल महन्तजी की सेवा में प्रस्तुत किया। सचे सन्तों का स्वाभाव होता है वो बिना जाने किसी भी अयोग्य व्यक्ति का धन या सेवा नहीं लेते हैं, और शास्त्र भी अनुमति नहीं देता है। अतः महन्त जी ने उस वेश्या से कहा हम बिना जाने ये धन स्वीकार नहीं कर सकते, आपने किस तरह से यह धन अर्जित किया है?

         वेश्या ने भी द्वार पर आये सन्तों से झूठ न कहकर सारी बात सच-सच बता दी की, मैं एक वेश्या हूँ, समाज के आसक्त पुरुषों को रिझाती हूँ, उसी से मैंने यह धन अर्जित किया है। इतना कहकर वह महन्त जी के चरणों में पूर्ण समर्पण करते हुए फुट-फुट कर रोने लगी, व महन्तजी से श्री ठाकुरजी की भक्ति का दान देने का अनुग्रह करने लगी।

         महन्त जी को भी दया आयी उसके इस अनुग्रह पर, लेकिन वे बड़े धर्म संकट में पड़ गये, यदि वेश्या का धन स्वीकार किया तो धर्म की हानि होगी और यदि शरण में आये हुए को स्वीकारा नहीं, मार्ग नहीं दिखाया तो भी सन्त धर्म की हानि।
         अब महन्त जी ने अपने ठाकुर जी का ध्यान किया और उन्ही को साक्षी कर वेश्या के सामने शर्त रखी और कहा–हम तो ये धन स्वीकार नहीं कर सकते यदि तुम हृदय से अपने इस बुरे कर्म को छोड़ना ही चाहती हो तो ऐसा करो इस पाप कर्म से अर्जित की हुई सारी सम्पत्ति को तुरन्त बेचकर जो धन आये उससे हमारे ठाकुर जी के लिए सुन्दर सा मुकुट बनवाओ। यदि हमारे प्रभु वह मुकुट स्वीकार कर ले तो समझ लेना उन्होंने तुम्हें माफ करके अपनी कृपा प्रदान की है।

         वेश्या का मन तो पहले ही निर्मल हो चुका था, महन्त जी की आज्ञा शिरोधार्य कर तुरन्त ही सम्पूर्ण संपत्ति बेचकर उसने ठाकुर जी के लिये ३ लाख रुपये का सुन्दर मुकुट बनवाया। कुछ ही दिनों में वेश्या ने मुकुट बनवाकर अपने नगर से महन्त जी के साथ ठाकुर जी मन्दिर के लिये प्रस्थान किया।
         मन्दिर पहुँचते ही जब यह बात समस्त ग्रामवासीयों और मन्दिर के पुजारियों को पता चली की अब वेश्या के धन से अर्जित मुकुट ठाकुर जी धारण करेंगे तो सभी अपना-अपना रोष व्यक्त करने लगे, और महन्त जी और उस वेश्या का मजाक उड़ाने लगे। महन्त जी सिद्ध पुरुष थे और ठाकुर जी के सर्वविदित प्रेमी भक्त भी थे तो किसी ने उनका विरोध करने की चेष्ठा नहीं की।

         अब देखिये जैसे ही वो वेश्या मन्दिर में प्रवेश करने लगी, द्वार तक पहुँची ही थी की पूर्व का पाप बीच में आ गया, वेश्या वहीं "रजस्वला" हो गई... माथा पीट लिया अपना, फुट फुटकर रोने लगी, मूर्छित होके भूमि पे गिर पड़ी।
         'हाय महा-दुःख, सन्त की कृपा हुई, ठाकुर जी का अनुग्रह प्राप्त होने ही वाला था की रजस्वला हो गई, मन्दिर में जाने लायक ही न रही'–सब लोग हसीं उड़ाने लगे, पुजारी भी महन्त जी को कोसने लगे।
         अब महन्त जी भी क्या करते, उन्होंने वेश्या के हाथ से मुकुट लेकर स्वयं ठाकुर जी के गर्भगृह प्रवेश कर श्री ठाकुर जी को मुकुट पहनाने लगे। इधर महन्त जी बार-बार मुकुट प्रभु के मस्तक पर धराए और ठाकुर जी धारण ही ना करें, मुकुट बार-बार ठाकुर जी के मस्तक से गिर जाये।
         अब तो महन्त जी भी निराश हो गये सोचने लगे हमसे ही बहुत बड़ा अपराध हुआ है, शायद प्रभु ने उस वेश्या को स्वीकार नहीं किया, इसलिये ठाकुर जी मुकुट धारण नहीं कर रहे हैं।

         अपने भक्त को निराश देखकर ठाकुर जी से रहा नहीं गया। अपने श्री विग्रह से ही बोल पड़े–'बाबा आप निराश मत हों, हमने तो उसी दिन उस वेश्या को स्वीकार कर लिया था जिस दिन आपने उसे आश्वासन देकर हमारे लिए मुकुट बनवाने को कहा था।'
         महन्तजी ने कहा–'प्रभु जब स्वीकार कर ही लिया है तो फिर उस बेचारी का लाया हुआ मुकुट धारण क्यों नहीं कर रहे हैं ?'
         ठाकुर बोले–'मुकुट तो हम उसी वेश्या के हाथ से धारण करेंगे, इतने प्रेम से लायी है तो पहनेगे भी उसी के हाथ से, उसे तो तू बाहर ही छोड़कर आ गया और खुद मुकुट पहना रहा है मुझको!'

         महन्त जी ने कहा–'प्रभु जी वो रजस्वला है, वो मन्दिर में नहीं प्रवेश कर सकती।'
         अब तो ठाकुर जी जिद करने लगे–'इसी समय लाओ हम तो उसी के हाथ से पहनेंगे मुकुट।'
         मन्दिर के समस्त पुजारियों ने प्रभु की ये आज्ञा सुन दाँतो तले उंगलिया दबा ली, सब विस्मित से हो गये, सम्पूर्ण मन्दिर में हाहाकार मच गया, जिसने सुना वो अचंभित हो गया। ठाकुर जी की आज्ञा को शिरोधार्य कर सैकड़ो लोगो की उपस्थिति में उस वेश्या को सम्मान पूर्वक मन्दिर में प्रवेश करवाया गया।
         अपने हाथो से वेश्या ठाकुर जी को मुकुट धारण कराने लगी, नैनो से अविरल अश्रु की धाराऐं बह रही थी। कितनी अद्भुत दशा हुई होगी... ज़रा सोचो! ठाकुर जी भक्त की इसी दशा का तो आनन्द ले रहे थे।

         ठाकुर जी का श्री विग्रह बहुत बड़ा होने के कारण ऊपर चढकर मुकुट पहनाना पड़ता है, भक्त के अश्रु से प्रभु के सम्पूर्ण मुखारविन्द का मानो अभिषेक हो गया। वेश्या के मुख से शब्द नहीं निकल रहे, नयन अविरल अश्रु बहा रहे है, अवर्णीय दशा है। 
         आज ठाकुर जी ने उस प्रेम स्वरूप भेट स्वीकार करने हेतु अपना मस्तक नीचे झुका दिया और मुकुट धारण कर उस वेश्या को वो पद प्रदान किया जिसके लिए बड़े-बड़े देवता, सन्त-महात्मा हजारो वर्ष तप-अनुष्ठान करते हैं पर उन महाप्रभु का अनुग्रह प्राप्त करने में असमर्थ रहते हैं।
         कोटि-कोटि वन्दन है ऐसे सन्त को जो उस अन-अधिकारी वेश्या पर अनुग्रह कर श्री गोविन्द के चरणों का अनुसरण करवाया!
         वास्तव में प्रभु का ये ही शाश्वत सत्य स्वरूप है, सिर्फ और सिर्फ प्रेम से ही रिझते हैं, लाख जतन करलो, हजारो नियम कायदे बनालो परन्तु यदि भाव पूर्ण भक्ति नहीं है तो सब व्यर्थ है।

         दीनदयाल, करुणानिधान प्रभु तक जब किसी भक्त की करुणा पुकार पहुँचती है तो अपने आप को रोक नहीं पाते और दौड़े चले आते हैं निजभक्त के पास।
         प्रभु तो स्वयं प्रेम की डोरी में स्वयं बंधने के लिए तत्पर रहते हैं परन्तु उन्हें निश्चल प्रेम में बाँधने वाला कोई विरला ही होता है।

Category:Spirituality



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Written by Geetanjali

Story writer