" किसकी प्रीति अमर हो पाती, बिना प्रेम व्याकरण यहां पर?
अन्तर्मन ने कहा- प्रीति को अक्षर बना लिया जिसने ।"
- इन पंक्तियों को लिखने वाले कवि धनंजय अवस्थी ( 15 जुलाई 1933 से 29 अक्टूबर 2014 ) ने सचमुच प्रीति को अक्षर बनाकर ही अपनी काव्य-साधना को उत्तरोत्तर आगे बढ़ाया। प्रख्यात समीक्षक डाॅ. ओउमप्रकाश अवस्थी के अनुसार, " कविता के साथ उनका प्राण संचरित होता है। कविता उनके लिए पूजा-उपासना की भांति पवित्र और काव्य-कर्म शांति प्रदत्ति का स्रोत है। कविता लिखकर वे व्यक्तित्व का परिहार करते हैं तथा काव्य-साधना उनकी लोकमंगल साधना है।" उनका लोकमंगल जन-जन से पुनीत प्रीति का पर्याय है। अपनी इसी प्रीति को अक्षरों में अभिव्यक्ति देते हुए एक गीत में वे अपने आराध्य से अनुरोध करते हैं -
" बांटो तुम औरों को सौगातें किन्तु, मुझे
पल भर के दर्शन की प्यास और देना।
मैं इतने में ही जी लूंगा, हंस लूंगा साथी रो लूंगा।"
अपनी वाणी वंदना में भी वे लोकमंगल के लिए आराधनारत दिखाई देते हैं -
" ज्ञान के खुलें कपाट, हों प्रबुद्ध मूढ़ मन
शुद्ध भाव से विराट को करें सभी नमन ।"
खण्डकाव्य 'शबरी' से आरम्भ हुई भक्तकवि धनंजय अवस्थी की काव्य-यात्रा यावज्जीवन जारी रही। यह काव्य-यात्रा 'राम की पाती', 'तुम हो पूजा मेरे मन की', ' हिन्दी की जययात्रा', 'मन गोविंद करे' आदि पड़ावों को पार करती हुई गन्तव्य तक पहुंची।
द्वापरयुगीन कृष्णभक्त महात्मा विदुर के जीवनादर्शों का उनकी कविता में विवेचन, उन्मेष और परिपाक देखने हेतु न जाने कितने शब्द-शिल्पी प्रतीक्षा करते रहे। प्रतीक्षारत तो वे स्वयं भी थे, भले ही उनकी प्रतीक्षा का स्वरूप दूसरों की प्रतीक्षा से भिन्न था। अवलोकनीय है उनकी प्रतीक्षा का एक बिम्ब -
" सुधियों ने भी दिया तो दिया पीर को जन्म
और इसको जीने के लिए प्रतीक्षा के लोचन ठहरे ।"
पीर सहना तो प्रत्येक भक्त की नियति होती है। कवि अवस्थी जी भी इसके अपवाद न थे। वे भी अन्य भक्त-कवियों की भांति ही पीर की आग में तपकर काव्याकाश में पहुंचे थे। वे डंके की चोट पर कहते रहे -
" मीत सुन लो, पीर से मेरा सदा नाता रहा।
पीर से ही नीर नयनों में सदा आता रहा।।
छीन ले कोई न मेरे पीर के इस नीर को
बस इसी से उम्रभर लिखता रहा, गाता रहा।।"
फतेहपुर ( उ. प्र. ) के कंसपुर गुगौली नामक ग्राम में जन्मे धनंजय अवस्थी प्रथम प्रकाशित खण्डकाव्य 'शबरी' को राष्ट्रकवि पं. सोहनलाल द्विवेदी ने अपने स्नेहाशीष से अभिसिंचित किया था। अवस्थी जी के अनुसार, " यह पूज्य चाचाजी ( पं. सोहनलाल द्विवेदी ) के आशीर्वाद का प्रभाव था कि 'शबरी' काव्य-जगत में प्रतिष्ठापित हुई और मुझे यश मिला।" वस्तुत: मैं इसे अवस्थी जी की विनम्रता ही कहूंगा कि वे काव्य-जगत में अपनी सफलता का श्रेय राष्ट्रकवि पं. सोहनलाल द्विवेदी को देते रहे। कदाचित यह उन पर भक्त शिरोमणि शबरी के चरित्र का प्रच्छन्न प्रभाव था कि वे अपने को किसी कार्य का कर्ता न मानकर निमित्त मात्र मानते थे और आनन्दित रहते थे। उनका मानना रहा कि -
" एक आनन्द ही वारुणी है मधुर
जोड़ जिसका नहीं मिल सका आज तक।"
उदारमना अवस्थी जी कहा करते थे कि प्रभु प्रार्थना के नाम पर केवल समर्पण की पूंजी ही उनके पास है। वे काव्य-साधना की राह पर बंजारे की भांति निरंतर आगे बढ़ते रहे। 'मैं प्रतीक्षा में अभी तक जी रहा हूं ' शीर्षक गीत में उन्होंने लिखा है -
" भावना की कोख में पलता समर्पण
दर्द जैसे हो रहा हो जन्म ईश्वर का नया।"
ईश्वर की महिमा अनन्त है, कवि की सामर्थ्य थोड़ी। 'कहं रघुपति के चरित अपारा, लघु मति मोरि निरत संसारा।' लिखकर तुलसी ने राम के चरित्र-चित्रण में अपनी असमर्थता व्यक्त की है। धनंजय अवस्थी का कवि भी एक गीत में तुलसी के स्वर में स्वर मिलाता हुआ दृष्टिगत होता है -
" लिखते लिखते कलम थक गई, आंक न पायी रूप तुम्हारा।
शेष अधूरी चाह रह गई, ऐसा अद्भुत रूप तुम्हारा।।"
कवि की मान्यता है कि जिस प्रकार रामकथा सुनकर पक्षिराज गरुड़ संशयमुक्त हो गये थे, उसी प्रकार कवि के अंतस की अमराई के झूम उठने पर संशय रूपी पखेरू वहां से उड़ जाते हैं और उसे यह बोध हो जाता है कि -
" होती न सोना कभी प्रात के सूर्य की नव किरन
न अब तक हुआ और होगा नहीं हेमवर्णी हिरन
छटपटाना न ही लोभ के जाल में
पांव दौड़ें न अब स्वर्ण मृग के लिए।"
लोभ इत्यादि सांसारिक प्रपंचों से मुक्त होकर ही सहज समाधि की अवस्था में पहुंचा जा सकता है और परमात्मा से मिलन की अनुभूति की जा सकती है। अपने यदाकदा के अनुभव को कवि ने इन शब्दों में अभिव्यक्ति दी है -
" सहज समाधि लगी जब गहरी मन मधुवन में
एक बरन हो गई चेतना महामिलन में।"
साहित्य में काव्यानंद को ब्रह्मानंद का सहोदर माना गया है। कवि जब कविता में डूबता है, सहज समाधि लग ही जाती है। महारास के भावबोध में आत्मशोध का बिखराव सुनिश्चित है।
कतिपय काव्यालोचकों ने सूर को सूर्य, तुलसी को चंद्रमा, केशव को उडगन और अब के कवियों को खद्योत से उपमायित कर खद्योत के प्रकाश की न्यूनता को रेखांकित करने का उपक्रम किया है। कवि धनंजय अवस्थी अपनी अल्पज्ञता, अपनी न्यूनता, अपनी सीमा स्वीकारते हुए कवि-धर्म पर अपनी अडिगता का उद्घोष करते हैं -
" माना कि हम एक खद्योत ही हैं
मगर हम चमकना नहीं छोड़ सकते।"
इतना ही नहीं, अवस्थी जी अपनी अन्तिम सांस तक प्रकाशवाही सूर्य से होड़ लेने की ठाने हुए अपनी संकल्पबद्धता का परिचय देते हैं -
" चलता जहां निरंतर सूरज, वह आकाश नहीं छोड़ूंगा।
अन्तिम सांस सांस तक अपना, दृढ़ विश्वास नहीं छोड़ूंगा।।
रामकथा को नये मोड़ से निहारने का प्रयास करती 'राम की पाती' में अवस्थी जी ने कल्पना का आश्रय लेकर एक अनूठी अभिव्यक्ति दी है। उनकी इस रचना को कतिपय समीक्षकों ने 'दूतकाव्य' की संज्ञा प्रदान की है। पं. विद्यानिवास मिश्र ने इसमें भवभूति के 'उत्तररामचरित' की झलक पायी है। मुक्तछंद में रचा गया सम्पूर्ण आख्यान चित्ताकर्षक है। प्रस्तुत हैं प्रारंभिक पंक्तियां -
" प्राण प्रियतमे वैदेही
कुल परम्परा की ज्योति शिखा तुम
अपना प्रेम प्रदर्शन करते भेज रहा हूं तुमको पाती।
लिखना तो इतना है सीते
न तो अघाते प्राण, लेखनी नहीं अघाती
इस वियोग का मर्म क्या लिखूं जलती छाती
शब्द-शब्द में राम तुम्हारा
प्रतिबिम्बित है
शाश्वत सत्य चिरन्तन पाती।"
'शबरी' और 'राम की पाती' में तो रामकथा का अगाध अम्बुधि ठाठें मारता ही है, अवस्थी जी के अगणित गीत ऐसे हैं जिनमें भक्तिरस की कल्लोलिनी प्रवाहित है। अवस्थी जी लम्बे अरसे तक प्रतिदिन डायरी लिखते रहे हैं और लिखकर उसे अपने आराध्य गोपाल भइया को समर्पित करते रहे हैं। वे गोपाल ( कृष्ण ) और राम में भेद न मानते हुए दोनों की अर्चना समान भाव से करते रहे। भक्तिरस का अद्भुत परपाक उनकी कविताओं में हुआ है। उनका 'रामार्चन' लोकमानस को राम बनकर जीने की प्रेरणा प्रदान करता है -
" शील मर्याद में, सत्य संवाद में
हो जहां सुन्दरम्
बस वही राम है, हां वही राम है ।
हो न विचलित कभी लोक आघात से
पीर के सिन्धु में जो खिले प्रात से
नीति व्यवहार में, न्याय दरबार में
शिष्ट सम्भाषणम्
बस वही राम है, हां वही राम है।।"
कहां तक कहें! 29 अक्टूबर 2014 को गोलोकवासी हुए अवस्थी जी की रचनाओं में भक्तिरस भरा पड़ा है। गीत संग्रहों में यत्र-तत्र 'जटायु के राम' जैसी छंद विधान से मुक्त कविताएं भी संग्रहीत हैं। जीवन के अन्तिम दिनों में अवस्थी जी की भक्ति भावना कुछ ज्यादा ही सिर चढ़कर बोलने लगी थी। वे प्रायः यह गाते- गुनगुनाते पाये जाते थे -
“आओ कर लें याद राम की, कुछ ही देर सही।”
कीर्तिशेष कवि धनंजय अवस्थी के बारे में मेरे जैसा मंदमति मनुष्य अधिक कुछ कहने की सामर्थ्य नहीं रखता। उनकी कविताएं विश्वविद्यालयीय पाठ्यक्रम से सम्बद्ध रहने के कारण अनेकानेक काव्यशास्त्र विशेषज्ञों के बीच अध्ययन-अनुशीलन एवं शोध का विषय हैं। अन्त में, मैं उनके जन्मदिवस पर उनकी यश:काया को अपनी कविता के माध्यम से प्रणाम निवेदित कर अपनी बात समाप्त करना चाहूंगा -
" भक्त शिरोमणि शबरी पर जिसने थी कलय चलायी।
उसके एक नहीं, अनेक हैं कालजयी अनुयायी।।
नयी ऊर्जा नव उमंग जो जन-मन में भरता था।
जो देकर आलोक लोक को बड़े काम करता था।।
जिसकी राह न रोक सकी पथ की कोई कठिनाई।
उसके एक नहीं, अनेक हैं कालजयी अनुयायी।।
जिसने लिखी राम की पाती, राम नाम गुण गाया।
तुम हो पूजा मेरे मन की', गाकर सुयश कमाया।।
मां वाणी के मंदिर में गुंजित जिसकी कविताई।
उसके एक नहीं, अनेक हैं कालजयी अनुयायी।।
हिन्दी की जययात्रा' रचकर की हिंदी की सेवा।
खाते रहे डायरी लिखकर कृष्ण भक्ति की मेवा।।
जिसने की मन-वचन-कर्म से हिंदी की सेवकाई।
उसके एक नहीं, अनेक हैं कालजयी अनुयायी।।
मिसाइलों की छांव में रचा, आत्मकथा लिख डाली।
श्रेष्ठ सृजन की ज्योति जलाकर फैलायी उजियाली।।
नवोदितों को प्रोत्साहन दे जिसने राह दिखाई।
उसके एक नहीं, अनेक हैं कालजयी अनुयायी।।
दासीपुत्र विदुर पर लिखने की थी हिय अभिलाषा।
पर अगणित हिंदी भक्तों की पूरी हुई न आशा।।
जो राई को गिरि, कर सकता था जो गिरि को राई।
उसके एक नहीं, अनेक हैं कालजयी अनुयायी।।"
@ महेश चन्द्र त्रिपाठी