स्वामी रामतीर्थ : वेदान्त दर्शन के पुरोधा

जन्मदिवस पर सश्रद्ध स्मरण

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21 Oct '24
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"आह खोला किस अदा से तूने राजे रंगो बू।

  मैं अभी तक हूं असीरे इम्तियाजे रंगो बू।।"

              - यह एक शेर है उर्दू के मशहूर कवि अल्लामा इक़बाल की उस कविता का जो उन्होंने स्वामी रामतीर्थ से प्रभावित होकर उनके बारे में लिखी है। इस शेर का तात्पर्य यह है कि ज्ञानेन्द्रियों से अवबोधित होने वाले इस संसार के रहस्यों को आपने बड़े अनूठे अंदाज से खोल दिया है, मैं अभी तक यह ही विभेद करने में असमर्थ हूं कि रंग क्या है और बू क्या है।

                भारत भूमि को अपना शरीर, कन्याकुमारी को अपने पैर और हिमालय को अपना शिर कहने वाले स्वामी रामतीर्थ का जन्म 22 अक्टूबर 1873 को - दीपावली के दिन - पंजाब के गुजरांवाला जिले के मुरारीवाला ग्राम में पण्डित हीरानन्द गोस्वामी के पुत्र के रूप में हुआ था। धर्मनिष्ठ ब्राह्मण परिवार में जन्मे बालक का नाम रखा गया था- तीर्थराम। तीर्थराम का बचपन और विद्यार्थी जीवन बड़ा कंटकाकीर्ण रहा। अनेकानेक अड़चनों और प्रतिकूलताओं के बावजूद तीर्थराम ने अपनी माध्यमिक और फिर उच्च शिक्षा पूर्ण कर अपनी पहचान बनाई। तीर्थराम का विवाह उनके पिता ने बाल्यावस्था में ही कर दिया था।

                 तीर्थराम ने लाहौर में रहकर अपनी उच्च शिक्षा को शिखर पर पहुंचाया था। अपने अत्यंत प्रिय विषय गणित की एम.ए. की परीक्षा सर्वाधिक अंकों से उत्तीर्ण कर वे उसी कालेज में गणित के प्रोफेसर नियुक्त हुए थे। वे अपने वेतन का एक बड़ा हिस्सा निर्धन छात्रों की सहायतार्थ व्यय किया करते थे। उनका रहन-सहन और खान-पान अत्यंत साधारण था। लाहौर में ही उन्हें स्वामी विवेकानन्द के प्रवचन सुनने तथा सानिध्य प्राप्त करने का अवसर मिला। उस समय वे पंजाब की सनातन धर्मसभा से सम्बद्ध थे।

                 प्रोफेसर तीर्थराम ने हिन्दी, संस्कृत, उर्दू साहित्य के साथ ही पाश्चात्य मनीषियों के साहित्य का भी सम्यक अध्ययन किया। उन्होंने अद्वैत वेदांत को आत्मसात कर उर्दू में एक मासिक पत्र 'अलिफ' निकाला। 'अलिफ' के ज्ञानालोक से समाज परिचित हुआ तो उनकी ख्याति स्वयमेव दूर-दूर तक पहुंच गई। इसी बीच दो महात्माओं- द्वारकापीठ के तत्कालीन शंकराचार्य और स्वामी विवेकानन्द- का उन पर विशेष प्रभाव पड़ा।

                   सन् 1901 में प्रो. तीर्थराम ने लाहौर से अन्तिम विदा लेकर परिजनों सहित हिमालय की ओर प्रस्थान किया। अलकनंदा और भागीरथी के पवित्र संगम पर पहुंचकर उन्होंने पैदल मार्ग से गंगोत्री जाने का मन बनाया। टिहरी के समीप पहुंचकर नगर में प्रवेश करने के बजाय वे कोटिग्राम में शाल्मली वृक्ष के नीचे ठहर गये। ग्रीष्मकाल होने के कारण उन्हें यह स्थान बड़ा रम्य और सुविधाजनक लगा। मध्यरात्रि में यहीं पर प्रो. तीर्थराम को आत्मसाक्षात्कार हुआ। उनके मन के सभी भ्रम और संशय समूल समाप्त हो गये। उन्होंने स्वयं को ईश्वरीय कार्य के लिए समर्पित कर दिया और वे प्रो. तीर्थराम से सन्त रामतीर्थ हो गये।

                   सन्त रामतीर्थ द्वारकापीठ के शंकराचार्य के निर्देशानुसार केश व मूंछ आदि का त्याग कर संन्यास ले लिया और अपनी पत्नी व परिजनों को वहां से वापस लौटा दिया। उनके संन्यासोपलक्ष्य में अमर क्रांतिकारी पं. रामप्रसाद बिस्मिल ने अपनी पुस्तक 'मन की लहर' में "युवा संन्यासी" शीर्षक से एक बड़ी मार्मिक कविता लिखी है। कविता के कुछ अंश दृष्टव्य हैं -

"वृद्ध पिता-माता की ममता, बिन ब्याही कन्या का भार,

  शिक्षाहीन सुतों की ममता, पतिव्रता पत्नी का प्यार,

  सन्मित्रों की प्रीति और, कालेज वालों का निर्मल प्रेम,

  त्याग सभी अनुराग किया, उसने विराग में योगक्षेम ।

  प्राणनाथ! बालक सुत-दुहिता, यूं कहती प्यारी छोड़ी।

  हाय! वत्स, वृद्धा के धन, यूं रोती महतारी छोड़ी ।।

  चिर सहचरी रियाजी छोड़ी, रम्यतटी रावी छोड़ी ।

  शिखा-सूत्र के साथ हाय! उन बोली पंजाबी छोड़ी।।"

                     सन्त रामतीर्थ ने सभी सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर एक संन्यासी के रूप में घोर तपस्या की और वे सन्त रामतीर्थ से स्वामी रामतीर्थ हो गये। स्वामी रामतीर्थ के सम्पर्क में आकर तत्कालीन टिहरी नरेश कीर्तिशाह नास्तिक से आस्तिक हुएं और उन्होंने ही जापान में होने वाले विश्व धर्म सम्मेलन में स्वामी रामतीर्थ को भेजने की व्यवस्था की। स्वामी रामतीर्थ जापान से अमरीका गये और फिर मिस्र भी। विदेश यात्रा में उन्होंने भारतीय संस्कृति का उद्घोष किया तथा विदेश से लौटकर भारत में भी अनेक स्थानों पर प्रवचन दिए। उनके व्यावहारिक वेदान्त पर विद्वानों ने सर्वत्र चर्चा की और उन्हें सराहा।

                 स्वामी रामतीर्थ ने जापान में लगभग एक माह और अमेरिका में लगभग दो वर्ष प्रवास किया। वे जहां-जहां पहुंचे, लोगों ने उनका एक महान सन्त के रूप में स्वागत किया। उनके व्यक्तित्व में चुम्बकीय आकर्षण था। उन्होंने सर्वत्र एक ही संदेश दिया- “आप लोग देश और ज्ञान के लिए सहर्ष प्राणों का उत्सर्ग कर सकते हैं। यह वेदान्त के अनुकूल है। पर, आप जिस अनुपात में सुख-साधनों पर भरोसा करते हैं, उसी अनुपात में इच्छाएं बढ़ती हैं। शाश्वत शान्ति का एक मात्र उपाय है आत्मज्ञान।”

                  सन् 1904 में स्वदेश लौटने पर लोगों ने स्वामी रामतीर्थ से अपना एक समाज संगठित करने का आग्रह किया। इस पर उन्होंने अपनी बांहें फैलाकर कहा, “भारत में जितनी सभा-समाजें हैं, सभी राम की अपनी हैं। राम मतैक्य के लिए है, मतभेद के लिए नहीं। देश को इस समय आवश्यकता है एकता और संगठन की, राष्ट्रधर्म और विज्ञान साधना की, संयम और ब्रह्मचर्य की।”

                 टिहरी गढ़वाल से उन्हें अगाध अनुराग था क्योंकि वह उनकी आध्यात्मिक प्रेरणास्थली थी। वे घूम-फिरकर पुनः वहीं पहुंचे और 17 अक्टूबर 1906 को - दीपावली के दिन ही - उन्होंने मृत्यु के नाम एक संदेश लिखकर गंगा में जलसमाधि ले ली। स्वामी रामतीर्थ के जीवन का प्रत्येक पक्ष आदर्शमय था। वे एक आदर्श विद्यार्थी, आदर्श गणितज्ञ, आदर्श देशभक्त, आदर्श दार्शनिक और आदर्श प्रज्ञावान सन्त थे। वे शंकराचार्य के अद्वैतवाद के समर्थक थे, पर उसकी सिद्धि के लिए उन्होंने स्वानुभव को ही महत्वपूर्ण माना है। उनके अनुसार, “हमें धर्म और दर्शनशास्त्र भौतिक विज्ञान की भांति पढ़ना चाहिए। पाश्चात्य दर्शन केवल जाग्रतावस्था पर आधारित है। उसके द्वारा सत्य से साक्षात्कार नहीं होता। यथार्थ तत्व वह है जो जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति के आधार में सत् चित् और आनन्द रूप से विद्यमान है।”

@ महेश चन्द्र त्रिपाठी 

 

Category:Spirituality



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Written by Mahesh Chandra Tripathi