धूप_छांव

धूप_छांव

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13 May '24
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रविवार की दोपहर थी। अवकाश होने के कारण मैं घर की अहाते में कुर्सी पर बैठ कर अखबार पढ़ रहा था। इसी बीच, मेरी पत्नी चाय लेकर आई और बोली"यह लीजिए साहब चाय।"फिर इतना कहकर वह मुस्कुराने लगी।उसे देखकर मैं बोला"क्या बात है सरकार!आज बिना मांगे ही चाय हाजिर है।"हालांकि, उससे प्यार से बोला।

मेरी पत्नी बोली"अपने लिए चाय बना रही थी।सोची,आपको भी दे दूं।"उसकी बातें सुनकर मैं अंदर ही अंदर खुश नहीं हुआ। फिर भी कोई बात नहीं। यही सोचकर मैं चाय पीने लगा। इसी बीच, मेरी नजर अपने घर से थोड़ी दूर पर एक ऐसे व्यक्ति पर गई।जो देखने में काफी कमजोर और गरीब था।

मैं उसके पास गया, और बोला"भाई, इतनी धूप में भी तुम काम करने के लिए निकल पड़े हो?क्या तुम्हें धूप नहीं लग रही है?"मेरी बातें सुनकर वह आदमी बोला"अपनी_अपनी जिंदगी है साहब!कोई खा कर मर रहा है, कोई बिना खाए ही मार रहा है। यह जीवन तो धूप_छांव है।"

उसकी बातों को सुनकर मुझे बहुत ही दुःख हुआ। इसी कारण, ना चाहते हुए भी कुछ सामान खरीद लिया। फिर घर आकर सोचा ठीक कहा है उसने, यह जीवन धूप _छांव है।

       : कुमार किशन कीर्ति 

 

Category:Stories



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Written by Kumar kishan kirti

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