परमात्मा के प्रति प्रेम की परात्पर स्थिति का नाम भक्ति है। 'प्रेम से प्रगट होंहि भगवाना' कहकर संत कवि तुलसी ने इस सत्य की साक्षी दी है। भक्ति और प्रेम, भक्त और प्रेमी एक-दूसरे के पर्याय हैं। प्रेम अमृत है, सिद्धि है, सर्व सुख प्रदाता है। पुरुषार्थ चतुष्टय - धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष - की प्राप्ति के लिए उत्कट प्रेम की अपरिहार्यता सर्वविदित है। गोस्वामी तुलसीदास के शब्दों में -
" जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई।
कोटि भांति कोउ करै उपाई।।
तथा मोक्ष सुख सुनु खगराई।
रहि न सकइ हरि भगति बिहाई।।"
प्रेम प्रत्युपकार की अपेक्षा नहीं रखता। लोकश्रुति है कि प्रेम किया नहीं जाता, प्रेम हो जाता है। प्रेम में पड़कर प्रेमी प्राणोत्सर्ग के लिए सहर्ष तत्पर रहता है। गोपियों को जब श्याम (कृष्ण) से प्रेम हो गया तो उनकी क्या दशा हुई, इसका वर्णन करते हुए किसी भक्त कवि ने लिखा है -
" श्याम तन, श्याम मन, श्याम है हमारो धन
आठों याम ऊधौ हमें श्याम ही सों काम है।
श्याम हिये, श्याम जिये, श्याम बिनु नाहीं तिये
अंधे की सी लाकरी, आधार श्याम नाम है।।
श्याम गति, श्याम मति, श्याम ही है प्रानपति
श्याम सुखदाई सों भलाई शोभाधाम है।
ऊधौ तुम भये बौरे, पाती लैके आए दौरे
जोग कहां राखें, यहां रोम-रोम श्याम है।।"
भक्ति स्वरूपा प्रेम में पड़कर व्यक्ति बौरा जाता है, प्रेमी को पाने के लिए पागल हो जाता है, उसे और कुछ नहीं सूझता सिवाय प्रेमी के गुणों के चिन्तन के। उसे स्वयं में ही आनंद की अनुभूति अहर्निश, आठों याम होती रहती है।
प्रेम में पड़े व्यक्ति को अपने प्रेमी से कुछ पाने की कामना तिरोहित हो जाती है। वह सब कुछ त्याग कर, विस्मृत कर अपने प्रेमी की याद में सर्वदा खोया रहता है। उसे अपने नित्य-नैमित्यिक कर्मों की भी सुधि नहीं रहती। सुंदर कवि ने बहुत सुंदर शब्दों में उसकी स्थिति का चित्रण किया है -
" न लाज तीन लोक की, न वेद की कह्यो करै।
न शंक भूत-प्रेत को, न देव-जच्छ ते डरै।।
सुनै न कान और की, द्रवै न और इच्छना।
कहै न बात और की, सुभक्ति प्रेम-लच्छना।।"
प्रेम में डूबी ्हुई एक गोपी की क्षण-क्षण बदलती देहदशा का बड़ा रोचक वर्णन किया है कवि सुंदर ने। आप भी आनन्द लें -
" कबहुंक हंसि उठि नृत्य करै, रोवन फिरि लागै।
कबहुंक गदगद कंठ, सबद निकसै नहिं आगै।।
कबहुंक हृदै उमंग, बहुत ऊंचे सुर गावै।
कबहुंक ह्वै मुख मौन, गगन जैसो रहि जावै।।
चित्त-चित्त हरि सों लग्यो, सावधान कैसे रहै।
यह प्रेम-लच्छना भक्ति है, शिष्य सुनो 'सुन्दर' कहै।।"
प्रेम में प्रेमी को अपने प्रेमास्पद के सिवाय और कोई अच्छा नहीं लगता। उसकी एकनिष्ठता को दृष्टि में रखकर कभी कवि रहीम ने कहा था -
" प्रीतम छवि नैनन बसी, पर छवि कहां समाय।
भरी सराय रहीम लखि, आपु पथिक फिरि जाय।।"
प्रेम में प्रेमी की अनन्यता को निरूपित करते हुए कवि शिरोमणि तुलसी का मत है कि -
" रमा विलास राम अनुरागी। तजत वमन इव नर बड़भागी।"
प्रबल प्रेम की, परात्पर प्रेम की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसे परिभाषित नहीं किया जा सकता। यह सर्वथा अपरिभाषेय है। इसमें व्यक्ति हारकर भी नहीं हारता, प्रत्युत वह पग-पग पर अपने प्रेमास्पद को जिताना चाहता है, उसकी जीत पर अपनी जीत से ज्यादा आनंद मनाता है।
भगवान सदैव ऐसे प्रेमियों के वश में रहते हैं। वे अपने भक्तों की आवश्यकतानुसार सिन्धु, खम्भ, पृथ्वी और पाषाण से भी प्रगट हो जाते हैं। नाना प्रकार की लीलाएं करते हैं और अपने प्रेमियों को आसन्न संकट से उबारते हैं। स्मरणीय हैं लोककवि 'विन्दु' जी की ये सुचर्चित पंक्तियां -
" प्रबल प्रेम के पाले पड़कर, प्रभु को नियम बदलते देखा।
उनका मान टले, टल जाए, जन का मान न टलते देखा।।"
महेश चन्द्र त्रिपाठी
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फतेहपुर, उत्तर प्रदेश
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