महाराज प्रियव्रत की कथा
जय श्री कृष्णा, जय सीताराम, जय गोविंद! मेरे सभी आध्यात्मिक मित्रों को सादर प्रणाम। आज मैं आपको एक बहुत ही महत्वपूर्ण और रोचक कथा सुनाने जा रहा हूँ। यह कथा महाराज प्रियव्रत की है, जो श्रीमद्भागवत महापुराण में वर्णित है। यह कथा हमें जीवन में उच्चतम आध्यात्मिक उद्देश्य की प्राप्ति के बारे में बहुत कुछ सिखाती है।
कथा की शुरुआत: जब सृष्टि का प्रारंभ हुआ और पृथ्वी की रचना हुई, तो पूरी पृथ्वी का शासन महाराज मनु के हाथों में था। महाराज मनु, जो आदिम काल के पहले राजा थे, उन्होंने सृष्टि के आरंभ में पृथ्वी को प्रजा के कल्याण के लिए शासित किया था। उनके पुत्र थे महाराज प्रियव्रत, जो बचपन से ही अत्यंत विद्वान और धर्मप्रिय थे। उनका जीवन बहुत ही साधारण था और वे नारद जी की संगति में रहते थे। नारद जी की उपदेशों और परमात्मा के ध्यान में एक गहरी रुचि थी। उनकी संगति के प्रभाव से, महाराज प्रियव्रत के मन में भगवान विष्णु के परम पद को प्राप्त करने की तीव्र इच्छा जागृत हो गई थी।
महाराज मनु का निर्णय: एक दिन महाराज मनु ने अपने आपको वृद्ध और असमर्थ पाया, और उन्होंने सोचा कि अब राज्य का भार अपने पुत्र प्रियव्रत को सौंप देना चाहिए। उन्होंने प्रियव्रत को बुलाकर कहा, "पुत्र, अब समय आ गया है कि मैं अपने कर्तव्यों से मुक्त हो जाऊं और वानप्रस्थ की ओर जाऊं। तुम राज्य का भार संभालो और प्रजा का पालन करो।"
लेकिन प्रियव्रत ने यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया। उन्होंने कहा, "पिता जी, मुझे राज्य की कोई इच्छा नहीं है। मैं विष्णु के परम पद को प्राप्त करना चाहता हूँ, इसलिए मैं राज्य का काम नहीं करना चाहता। मैं तपस्या करना चाहता हूँ और मुक्ति प्राप्त करना चाहता हूँ।"
प्रियव्रत का निर्णय और ब्रह्मा जी का मार्गदर्शन: प्रियव्रत के इस उत्तर से महाराज मनु बहुत चिंतित हो गए। वे समझ नहीं पा रहे थे कि किस प्रकार उन्हें अपने पुत्र को समझाया जाए। इसलिए उन्होंने पिता ब्रह्मा जी की सहायता ली।
ब्रह्मा जी ने प्रियव्रत से कहा, "पुत्र, तुम जो चाहते हो, वह भी संभव है, लेकिन तुम अपनी इंद्रियों और मन पर विजय प्राप्त करो। यदि तुम अपनी इंद्रियों और मन को नियंत्रित कर लेते हो, तो तुम्हारे लिए यहां राजकाज करना और तपस्या करके भगवान के परम पद को प्राप्त करना, दोनों ही कार्य सहज हो जाएंगे।"
प्रियव्रत ने ब्रह्मा जी की बातों को समझा और उन्होंने राज्य ग्रहण करने का निर्णय लिया। वे समझ गए कि अगर वे राज्य का संचालन धर्म और कर्तव्य के साथ करेंगे, तो वे भगवान के परम पद को प्राप्त कर सकते हैं।
राज्य का संचालन और विवाह: प्रियव्रत ने राज्य का संचालन पूरी तन्मयता से शुरू किया। उन्होंने अपने राज्य में धर्म और न्याय का पालन किया और प्रजा की भलाई के लिए कई कार्य किए। समय के साथ उनका विवाह हुआ और उनके दो पत्नियाँ थीं, जिनसे उन्हें दस पुत्रों की प्राप्ति हुई।
एक दिन, महाराज प्रियव्रत अपनी छोटी रानी के साथ अपने महल में बैठे हुए थे। उस समय उनके मन में एक विचार आया, "मेरे राज्य के कुछ हिस्सों में रात के समय अंधकार छा जाता है और चोर-डाकू प्रजा को परेशान करते हैं। ऐसे में क्या किया जाए कि प्रजा को कष्ट ना हो?"
प्रियव्रत का दिन-रात का विचार: महाराज प्रियव्रत ने सारथी को बुलाया और आधी रात को रथ तैयार करने को कहा। वे रथ पर सवार हुए और पूरी पृथ्वी को प्रकाशमय करने के लिए निकल पड़े। उन्होंने सोचा कि अगर रात और दिन का अंतर समाप्त कर दिया जाए, तो पृथ्वी पर हमेशा दिन रहेगा और प्रजा कभी भी कष्ट में नहीं होगी।
प्रियव्रत ने अपनी शक्ति से पूरी पृथ्वी को प्रकाशित किया, और रात का अस्तित्व समाप्त कर दिया। ऐसा देखा गया कि अब पूरी पृथ्वी में दिन ही दिन हो गया था, और रात का कोई अस्तित्व नहीं रहा।
ब्रह्मा जी का आगमन: जब ब्रह्मा जी को यह सूचना मिली, तो वे चिंतित हो गए और उन्होंने प्रियव्रत से पूछा, "पुत्र, तुमने पूरी पृथ्वी को प्रकाशमय क्यों कर दिया? यह व्यवस्था मैंने समय की गणना के लिए बनाई थी, जिससे हर दिन और रात के साथ समय का निर्धारण होता है। इससे न केवल मौसम में परिवर्तन होता है, बल्कि पृथ्वी पर जीवन के चक्र भी निर्धारित होते हैं।"
प्रियव्रत ने ब्रह्मा जी से माफी मांगी और समझा कि रात और दिन का अंतर पृथ्वी के कार्यों के लिए जरूरी है।
सात महाद्वीपों का निर्माण: जब प्रियव्रत ने पृथ्वी पर रथ चलाया, तो पृथ्वी पर सात महाद्वीप और सात सागर बन गए। यही महाद्वीप आज हम एशिया, अफ्रीका, यूरोप, अमेरिका, आदि के नाम से जानते हैं।
प्रियव्रत के पुत्रों की भूमिका: प्रियव्रत के दस पुत्र थे। उनमे से तीन पुत्र वानप्रस्थ के लिए गए और शेष सात पुत्रों को प्रत्येक महाद्वीप का शासक बना दिया। प्रियव्रत के जीवन में एक बहुत बड़ा परिवर्तन हुआ। उन्होंने वानप्रस्थ की ओर रुख किया और भगवान के ध्यान में लीन हो गए।
मनुष्य की उत्पत्ति: महाराज प्रियव्रत के वंशजों ने पृथ्वी पर मानवता का प्रसार किया और मनुष्य की उत्पत्ति हुई। यह हम जानते हैं कि हम सब महाराज मनु की संतान हैं, इसलिए हम सभी को मनुष्य कहा जाता है। चाहे हम किसी भी महाद्वीप में हों, हम सब एक ही वंश के हैं, और हमें यह गर्व होना चाहिए कि हम महाराज मनु की संतान हैं, ना कि कोई बंदर से उत्पन्न जीव।
समाप्ति: यह कथा हमें यह शिक्षा देती है कि जीवन में जितना महत्वपूर्ण तपस्या और साधना है, उतना ही महत्वपूर्ण कर्तव्यों का पालन भी है। हम जितना अपने कर्मों और इंद्रियों पर विजय पा सकते हैं, उतना ही हम परमात्मा के करीब पहुंच सकते हैं।
आपको यह कथा कैसी लगी? कृपया अपने विचार कमेंट्स में जरूर बताएं। अगली बार मैं एक और रोचक और ज्ञानवर्धक कथा लेकर आपके पास आऊंगा। तब तक के लिए जय श्री कृष्णा! सुनील भट्ट
लेखक सम्पादत साप्ताहिक समाचार थीम
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