विद्या देवी अब अस्वस्थ ही रहती थी। वृद्धावस्था के कारण पहले से ही उन्हें चलने फिरने में परेशानी होती थी। इस कारण वह हाथ की छड़ी पकड़कर ही चल पाती थी। विद्या देवी 70 की अवस्था को पार कर चुकी थी… आज विद्या देवी असहज थी… उसे अपने बच्चों की याद आ रही थी… एक माँ का मन ऐसा ही होता है कि बच्चे सुपात्र की बजाय कुपात्र साबित हो जाएं, तब भी वह अपने बच्चों के सुखद भविष्य की कामना करती है। उधर विद्या देवी के पति रामदयाल भी बच्चों की बेरुखी से टूट गए थे…। लेकिन इस टूटन का वे विद्या देवी को अहसास नहीं होने देते थे… वे एक अच्छे पति का फ़र्ज अदा कर रहे थे… रामदयाल की एक छोटी सी पेंशन से ही दोनों का गुजारा हो जाता था…।
वृद्धावस्था और द्रवित होता मन विद्यादेवी को यादों के उन गलियारों में ले गया, जहां विद्यादेवी ने अपने भविष्य के सपने संजोए थे। विद्या देवी और रामदयाल के पांच बच्चे थे, जिनमें तीन लड़के सुमित, रूचिर, अमित व दो बेटियां मधु और भारती थी…। विद्यादेवी के पति रामदयाल डाकिया थे। उनका वेतन भी ज्यादा न था। पांच बच्चों का साथ और आय का एक ही साधन। जैसे तैसे विद्यादेवी अपना घर चलातीं। इन सभी समस्याओं के बाद विद्यादेवी ने अपने बच्चों को पढ़ाया-लिखाया। बच्चों की पढ़ाई लिखाई में बहुत व्यय कर दिया।
समय के साथ विद्यादेवी और उनके पति ने अपने माता-पिता की जिम्मेदारियां निभाते हुए अपने बच्चों का विवाह किया। दोनों बेटियां अपने-अपने परिवारों में व्यस्त हो चुकी थीं। बेटियों के संस्कार और पढ़ी लिखी होने के कारण रामदयाल को ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी… दोनों बेटियों के लिए रिश्ता घर बैठे ही आ गया…। इसके बाद धीरे-धीरे तीनों बेटों की नौकरी लग गई। वह भी अपनी पत्नी और बच्चों के साथ अलग-अलग जाकर रच बस गए। सभी अच्छा खासा जीवन यापन करने लगे…। तीनों बेटों के मन में कभी कभी यह ख्याल आता था… माताजी और पिताजी की कुछ सहायता करनी चाहिए, वे अपनी पत्नी से कहते भी थे, लेकिन उनकी पत्नी किस मिट्टी कि बनी थी… ज़ब सहायता की बात होती तो झगड़ा करने पर उतारू हो जाती थी… इसलिए चाहते हुए भी बच्चे अपने पिता के लिए कुछ भी नहीं कर पाते थे…। समय निकलने के बाद रामदयाल के बच्चे भी पिता बन गए… वे अपनी हैसियत से बच्चों को पढ़ाने लगे। उन्हें अब केवल अपने बच्चों का भविष्य ही दिखाई दे रहा था…। रामदयाल के बच्चों को लगता था कि अब उनका खुद का एक स्टेटस बन चुका था… सभी को अपने स्टेट्स का ख्याल था... फिर यह विद्या देवी का छोटा सा घर उनके स्टेट्स के हिसाब से भी अनुकूल नहीं था। वह अपने माताजी और पिताजी के बारे में सोचने में भी अपना अपमान समझने लगे…।
कुछ वर्ष पूर्व घर छोड़ते समय किसी ने भी माता-पिता की ओर ध्यान नहीं दिया कि वह अकेले कैसे रह सकेंगे। ज़ब बड़े बेटे की शादी हुई, तब कुछ समय तक बड़ी बहू ससुराल में ही रही… बड़े बेटे सुमित की पत्नी संगीता अपनी सास विद्या देवी को प्रतिदिन ताने मारते थी। बहू के ताने सुनकर विद्यादेवी को वह समय याद आ जाता था, जब बच्चे छोटे थे। किस तरह उन्होंने एक-एक पैसा जोड़कर अपने बच्चों की परवरिश की। अपनी जरूरतों पर ध्यान न देकर बच्चों की जरूरतों को पूरा किया.... और आज बहू के तानों ने विद्यादेवी को अंदर तक झकझोर दिया। उसके सपने धुएं की तरह उड़ते साफ नजर आ रहे थे। लेकिन उसके मन में एक आस थी कि दो बेटे और हैं… वे हमारी चिंता करेंगे…। लेकिन समय को कुछ और ही मंजूर था…। नौकरी लगने के बाद वे दोनों भी अलग अलग स्थानों पर बस गए…।
मुश्किल समय में शीतल हृदय की धनी विद्यादेवी अपने पति को हमेशा सांत्वना ही देती थी। विद्या देवी को लगता था कि समय सदैव एक सा नहीं रहता। एक दिन ऐसा भी आऐगा कि बच्चे इसको समझ जाएंगे। समझाने का कारण यही था, क्योंकि 75 की अवस्था में भी रामदयाल को रोटी पानी की चिंता करनी पड़ रही थी। बच्चों के व्यवहार को सोचकर वे मायूस हो जाते थे…। विद्या देवी और रामदयाल पहले यही सोचते थे कि बुढ़ापे के समय ज़ब बच्चे घर संभालेंगे… तब हम दोनों आराम से जीवन व्यतीत करेंगे। लेकिन समय की मार तो देखो बच्चे तो काबिल बन गए। ऊंचे पदों पर भी पंहुच गए, लेकिन माता-पिता की जिम्मेदारी की किसी को कोई फिक्र न थी। कोई भी लड़का माता-पिता के पास रहने को राजी ही न था और न ही अपने पास रखने को।
वृद्धावस्था की ओर कदम बढ़ा चुके विद्यादेवी शारीरिक रूप से असमर्थ हो चुकी थी। ठीक से खड़ी भी नहीं हो पाती थी… खाना भी नहीं बना सकती थी…। इसके कारण विद्या देवी और रामदयाल अब टिफिन सेंटर से खाना मंगवाकर अपना पेट भरते। जब बच्चे छोटे थे तो एक भी दिन ऐसा नहीं गया कि विद्यादेवी ने स्कूल जाते बच्चों को खाने के लिए टिफिन न दिया हो। वह सुबह जल्दी उठकर नाश्ता बना लेती थी।
सुबह जब कभी रामदयाल जी चाय की मांग करते तो विद्या देवी बच्चों को ही प्राथमिकता देतीं। विद्या देवी को लगता कि अगर देर हो गई तो बच्चे बिना टिफिन के स्कूल चले जाएंगे और बच्चों को छुुट्टी तक भूखे रहना पड़ेगा। बच्चों को स्कूल भेजने के बाद ही वह चाय बनाती। मां का हृदय बच्चों के लिए ऐसा ही होता है। कहते हैं कि माँ खुद भूखी रह जाती है, लेकिन बच्चों को भूखा नहीं रहने देती।
बच्चे ही माता-पिता के बुढ़ापे का सहारा होते हैं। जब बच्चे ही माता-पिता से मुंह मोड़ लेते हैं तो उनकी आधी ताकत कम हो जाती है या यूं कहें कि समय से पहले ही वह बूढ़े हो जाते हैं। विद्यादेवी ने जिस संघर्षशील जीवन के साथ बच्चों का पालन पोषण किया। उसे उसके बदले मेें जो मिला वह न्यायपूर्ण नहीं था। लेकिन मां तो मां ही होती है। हर परिस्थिति में वह अपने बच्चों का हित ही चाहती है।
विद्यादेवी भी समय के फेर को समझ चुकी थी। वह मन ही मन यह सोच कर खुश थी कि बच्चे दूर हैं तो क्या हुआ अपनी जिंदगी में खुश तो हैं। लेकिन उन्हें यह बात सालती थी कि उनके सहारे के लिए कोई भी लड़का उनके पास नहीं। तीन-तीन बेटे और बहुओं के बावजूद भी टिफिन सेंटर ही विद्यादेवी और रामदयाल का अब एक मात्र सहारा था। विद्या देवी और रामदयाल को अब अपनी जिंदगी बोझ सी लगने लगी। कहने को उनके बच्चे हैं… लेकिन ऐसे बच्चे अभागे ही होते हैं, जो अपने जीवित भगवान् माताजी और पिताजी की सेवा से वंचित रहते हैं।
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