लघुकथा

वादा

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21 Jun '24
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                                                           वादा

            स्कूल से आकर जब भी वो खेत के कामो में पिताजी का हाथ बटाता ,पिताजी की खस्ताहाल स्थिति के बारे में सोंचता रहता। आज शाम को जब गाये चराकर वह घर लौटा उसने देखा पिताजी घर में चारपाई पर बैठे किसी से कुछ बात कर रहे थे। उसने देखा पिताजी की बनियान पर अनगिनत छिद्र बने हुए है। उन जालीदार छिद्रो से उनका हड्डी के ढांचे सा शरीर जगह जगह से दिख रहा है। पिताजी को देखते हुए उसे याद आया आजतक उनके पैरो में कभी चप्पल या जुते के दर्शन नहीं हुए थे. जब भी खेत में काम करते , कंटीले जंगल जाते नंगे पैर ही जाते।

        बाबूजी की इस स्थिति को देखके आज वह कुछ ज्यादा ही बेचैन हो गया। बाबूजी हमेशा कष्टप्रद कामो में जुटे रहते. उनको कभी आराम करते या हंसी खुशी में उसने कभी भी नहीं देखा था। मन ही मन वह सोंचने लगा रात दिन काम करने के बावजूद पिताजी स्वयं का बदन नहीं ढक पाते , माँ तो जाने किस किस से पुरानी साडीया इकट्ठा कर अपना काम चलाती है ,आखिर यह सब क्यों हो रहा है ? अशिक्षा के कारण ही ना।

         मन ही मन उसने स्वयं से वादा किया। मैं माँ और पिताजी की मेहनत को बेकार नहीं जाने दूँगा। चाहे जिन भी दिव्यो से मुझे गुजरना पड़े। कड़ी पढ़ाई करके उनके बून्द बून्द पसीने की कीमत जरूर चुकाऊंगा। समय बीतता गया और आय ए एस में टॉप कर आज वह जिलाधिकारी पद पर नियुक्त हुआ था।

          नियुक्ति के कागजात पाकर माँ और बाबूजी के चरणों में रखते हुए जब आज उसने बाबूजी के चरण स्पर्श किये आँखों से आंसुओ की अनवरत धार बाबूजी के मटमैले चरण धो रही थी. उसका स्वयं से किया वादा आज आंसुओ के रूप में बाबूजी के चरण धो रहा था.

 

संजीव आहिरे 

नाशिक ( महाराष्ट्र )

 




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Written by Sanjeev Ahire

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