धर्म के नाम पर चलती दुकानें

लेख



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हाथरस की घटना पर मुझे अपना एक पुराना लेख याद आ गया, जिसमें मैंने ऐसे ढोंगी, धर्म के ठेकेदारों का जिक्र करते हुए समाज को चेतावनी दी थी। मेरा लेख इस तरह था -

हमारे देश में धर्म के नाम पर दुकानों का चलन कोई नया नहीं है। आदि काल से ही ये प्रथा बदस्तूर जारी है l हाँ इतना जरूर है कि पहले इन दुकानों की अपनी एक सीमा होती थी और इनके ग्राहक भी सीमित ही होते थे। पहले की धर्म की दुकानें अन्य दुकानों की भाँति ही छोटी होती थीं। पहले ये तथाकथित दुकानदार झाड़-फूँक, अनुष्ठान, टोना-टोटका, वशीकरण आदि के नाम पर गरीब, अशिक्षित, भोली-भाली जनता को ठगते थे।

आजकल जैसे लोगों का रुझान छोटी दुकानों के बजाय बड़े-बड़े मॉलों की ओर होने लगा है, धर्म का क्षेत्र भी इसका अपवाद नहीं है। अब धर्म के क्षेत्र में भी बड़े-बड़े मॉल, बड़े-बड़े शोरूम खुल गये हैं। जिनके स्वामियों ने छोटी दुकानों के ग्राहकों को अपनी चमक-धमक से अपनी ओर आकर्षित कर लिया हैं। जहाँ पहले धर्म की दुकानों के अधिकाँश ग्राहक आम लोग होते थे, अब बड़े-बड़े शोरूमों के ग्राहकों में इनके साथ-साथ बड़े-बड़े नेता, अधिकारी, उद्योगपति, फ़िल्मकार, खिलाड़ी व अन्य सभी तरह की सिलेब्रिटीज शामिल होती हैं। इन दुकानों का दायरा बहुत बढ़ गया हैं।

ये आधुनिक दुकानदार अर्थात स्वघोषित भगवान और धर्मगुरु अपने भक्तों को मोह माया, भोग विलास, माँस-मदिरा व अन्य भौतिक सुखों से दूर रहने के बड़े-बड़े उपदेश तो देते हैं, लेकिन अधिकाँश स्वयं इन चीजों का त्याग नहीं कर पाते हैं। अपने ग्राहकों अर्थात भक्तों को तो ये सादा जीवन उच्च विचार का संदेश देते हैं, किन्तु स्वयं अमीरों के साथ-साथ गरीबों को भी ठग कर, अर्जित किये गये धन से आलीशान महलनुमा भवनों तथाकथित आश्रमों, कुटियाओं में रहते हैं। ये लोग राजसी जीवन जीतें हैं और सांसारिक सुखों का त्याग नहीं कर पाते हैं।

अक्सर ये लोग स्वयं को भगवान का अवतार या उनका दूत बताते हैं, किन्तु वास्तव में वो क्या हैं? ये तो वो ही जानें या उनका भगवान। इनकी वास्तविकता को अगर कोई और पहचान सकता है, तो वो हैं इनके झाँसे में नहीं आने वाले लोग।

गरीब, अनपढ़ लोगों का इनके जाल में फँसना तो फिर भी समझ में आता है, लेकिन हैरानी तो तब होती है, जब पढ़े लिखे खुद को बुद्धिमान समझने वाले लोग भी इनके चँगुल में फँसकर इनकी भक्ति में लीन दिखाई देते हैं। आधुनिक स्वयं भू भगवान अपनी इतनी चमक-धमक दिखाते हैं, कि लोग इनके भक्त नहीं अंधभक्त हो जाते हैं। वो इन पर बिना कुछ सोचे समझे आँखें मूँदकर विश्वास करते हैं, इसी का ही परिणाम है कि ऐसे लोगों के काले कारनामे सामने आने पर भी उनके प्रति उनके भक्तों की आस्था कम नहीं होती। 

इसी बात का ही फायदा उठाकर ये स्वघोषित भगवान अपने आपको कानून से भी ऊपर समझते हैं, व कानून से खिलवाड़ की भी कोशिश करते हैं। इस तरह का प्रयास करने वालों में आशाराम, नारायण साईं, निर्मल बाबा, नित्यानंद, रामपाल आदि जीते जागते उदाहरण हैं। ऐसे लोगों की लिस्ट बहुत लम्बी है।

इनमे से कुछ लोग अपनी चकाचौंध बढ़ाने के लिए टी.वी. का भी सहारा लेते हैं। कुछ चैनल धनप्राप्ति हेतु इनके अंधविश्वास को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रमों का प्रसारण करते है। ऐसे चैनलों से भी मेरा ये प्रश्न है कि क्या धनार्जन हेतु वो अंधविश्वास के कार्यक्रम दिखाकर देश और समाज को नुकसान नही पहुँचा रहे है? 

क्या इन कार्यक्रमों को दिखाना और मात्र ये कहकर कि “ये एक प्रायोजित कार्यक्रम है और इससे चैनल का कोई लेना देना नही है।” ऐसा कह देना ही काफी है? इन चैनलों का इस तरह अपना पल्ला झाड़ लेना कानूनन तो सही हो सकता है, परन्तु क्या नैतिक रूप से सही है? इस बारे में इन्हे गंभीरता से विचार नही करना चाहिए?

काफी सारे स्वयं भू भगवानों का विवादों से पुराना नाता रहा है। इस कड़ी में अब एक और नाम जुड़ गया है, वो है राधे माँ का, जिन पर कई गंभीर आरोप है। वो दोषी है या नही, इसका निर्णय तो कोर्ट व कानून करेगा। लेकिन उन पर सवाल तो उठ खड़े हुए हैं।

इन तथाकथित स्वयं भू भगवानों और दूतों से मेरे कुछ प्रश्न है। पहला प्रश्न ये है कि “क्या हमारे देश जैसे किसी देश में, जहाँ करोड़ों लोगों को दो वक्त की रोटी भी नसीब नही होती हो, वहाँ किसी स्वयं भू भगवान का अपनी वेशभूषा, ज़ेवर, आदि पर लाखों करोड़ों रूपये खर्च करना उचित है? इनका आलीशान भवनों में रहना, महँगी गाड़ियों में घूमना व अन्य भौतिक सुखों को भोगना कितना जायज है?” 

मेरा प्रश्न यह भी है कि “जब कुछ तथाकथित धर्मगुरु सांसारिक जीवन छोड़ने की बात करते हैं, तो फिर इनमे से कुछ अपने परिवार के साथ कैसे जीवन व्यतीत करते हैं? कुछ चकाचौंध से भरी जिंदगी जीते हैं और कुछ तो राजनीति में भी उतर जाते हैं, ये कितना उचित है? 

कुछ तो ऐसे भी होते हैं कि जब इनकी गतिविधियों पर सवाल उठाये जायें तो भड़क जाते हैं, कहते हैं कि ‘ये उनके व्यक्तिगत जीवन के विषय हैं।’ मेरा प्रश्न यह है कि “क्या किसी सन्यासी का सार्वजानिक एवं व्यक्तिगत जीवन अलग-अलग हो सकता है? जब उसने सब कुछ त्याग दिया तो फिर उसका सांसारिक मोह माया, विषय वासना से क्या लेना देना?”

मेरा मानना है कि धर्म आस्था का विषय है, इसलिए लोगों की आस्था के साथ किसी को भी खिलवाड़ नही करना चाहिए। लोगों की भावनाओं को ठेस पहुँचे, ऐसे कार्य किसी को नही करने चाहिए, कम से कम यदि वो धर्मगुरु हो तो, बिल्कुल भी नही। 

इन धर्मगुरुओं को ये समझना होगा कि गुरु का हमारे देश में बड़ा महत्व होता है, और लोग गुरुओं को भगवान के बराबर या उससे भी ऊँचा मानते हैं। अतः यदि ये अच्छे गुरु की भाँति अपने भक्तों, शिष्यों का मार्गदर्शन नही कर पायें, तो निजी स्वार्थ के लिए उनको गुमराह भी न करें।

इन स्वयं भू भगवानों को यह समझना होगा कि झूठे भगवान बनकर लोगों को धोखा देने से अच्छा सच्चे इंसान बनकर लोगों की सहायता करना है। धर्म के ठेकेदारों को यह भी समझना होगा कि वह जो बड़ी अच्छी-अच्छी बातें करते हैं, उन पर दूसरों को अमल कराने से पहले उन्हें खुद भी अमल करना होगा।

हमारे देश और समाज का हित इसी में है कि इन धर्म की दुकानों के शटर गिराकर इन पर ताले लगाये जायें। हमारे बुद्धिजीवी वर्ग को समाज में जागरूकता फ़ैलाकर इस कार्य में अपना योगदान देना होगा। समाज के सभी वर्गों के लोगों को, जो इनकी सच्चाई से वाकिफ हैं, उन्हें भी जागरूकता फ़ैलाने में अपना योगदान देना होगा। हमारे देश को विकास की राह पर ले जाने के लिए ऐसा करना अतिआवश्यक है।

– © काफिर चन्दौसवी

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Written by पुनीत शर्मा (काफिर चंदौसवी)

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