परछाई
मेरी ही परछाईं मुझसे
अब यें पूछ रही है
कौन हूँ मैं क्या नाम है मेरा
क्यों मैं तेरे संग डोल रही हूँ
हर आहट होने पर भी मैं
क्यों तेरे संग चौंक रही हूँ
दिन का उजियारा हों
या रात का अंधियारा
फिर भी तेरे संग डोल रही हूँ
कभी तुझ से छोटी
तो कभी तुझ से बड़ी
कभी तुझ से दूर
तो कभी तुझ में हीं
सिमट रही हूँ
मंज़िल एक होने पर भी क्यों
अपना रास्ता खोज रही है
मेरी ही परछाईं मुझ में
अब अपना अक्स ढूँढ रही है
कौन हूँ मैं क्या नाम है मेरा
क्यों मैं तेरे संग डोल रही हूँ ।।
स्नेह ज्योति
कभी आंसमा में ढूँढता हैं कभी सपनों में खोजता हैं यें दिल हर पल ना जाने क्या-क्या सोचता है भीड़ मे तन्हाई में अपने को ही खोजता हैं
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