आरक्षण देश के लिए गंभीर समस्या

आरक्षण एक ऐसा रोग है, जो हमारे देश को बीमार बनाता जा रहा है। ये दीमक की तरह देश की जड़ों को खोखला कर रहा है।



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आरक्षण एक ऐसा रोग है, जो हमारे देश को बीमार बनाता जा रहा है। ये दीमक की तरह देश की जड़ों को खोखला कर रहा है। आरक्षण वो साँप है, जो न जाने कितने निर्दोष मासूमों को डस चुका है। इसका जहर समाज की रगो में फैलकर, उसको नुकसान पहुँचा रहा है। आरक्षण हमारे समाज के लिए एक नासूर है। आरक्षण हमारी सामाजिक व्यवस्था के मुँह पर पड़ने वाला वो तमाचा है, जो हम दशकों से सहते आ रहे हैं।

आरक्षण वो आग हैं, जिसे लगाकर हमारे देश के नेता अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेकने में मस्त हैं, लेकिन ये आग हमारे देश व समाज को झुलसा रही है, इसकी तपिश की उन नेताओं को कोई परवाह नही हैं। आरक्षण वो अवरोधक हैं, जो मेहनती लोगों की राह में रोड़ा बनके खड़ा हैं और ये न सिर्फ योग्य लोगों बल्कि देश को भी विकास के पथ पर बढ़ने से रोक रहा है।

भारत में आरक्षण का क्या इतिहास रहा है? नौकरियों में आरक्षण लागू करने की आवश्यकता क्यों पड़ी? प्रस्तावित समय समाप्ति के बाद भी आरक्षण आज भी क्यों जारी है? क्या वर्तमान समय में आरक्षण प्रासंगिक है? क्या हमारे नेता निजी स्वार्थों (वोट बैंक) की राजनीति को छोड़कर देशहित में आरक्षण समाप्त करने की कभी हिम्मत कर सकेंगे? इन सवालों के जवाब पाने के लिए गंभीरता पूर्वक विचार करने पर तथा सारे तथ्यों की विवेचना करने पर, मैंने जो अनुभव किया वो इस प्रकार है।

यदि हमारे देश में आरक्षण का इतिहास देखा जाए, तो ऐसा माना जाता है कि सम्भवतः इसकी शुरूआत ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा सन 1765 में पुरानी मद्रास प्रेसीडैंसी से तब हुई थी, जब ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा एक निर्णय लिया गया था, कि कम्पनी में भर्ती किए जाने वाले सेवकों में तैतीस प्रतिशत गैर-ब्राह्मण होने चाहिए। जहाँ तक वर्तमान समय में जारी आरक्षण की बात है, तो इसकी शुरुआत आजादी के बाद तब हुई थी, जब दलितों और आदिवासियों के लिए संसद, विधानसभाओं और शिक्षण संस्थानों के साथ-साथ सरकारी नौकरियों में भी आरक्षण की व्यवस्था शुरू कर दी गयी थी।

जहाँ तक इस सवाल पर विचार करने पर, कि भारत में आरक्षण को लागू करने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई? निष्पक्षतापूर्वक देखने पर आपके सामने जो कटु सत्य आयेगा, वो ये है कि अतीत में हमारा समाज पूरी तरह से जातियों के आधार पर बंटा हुआ था। अतीत के पन्नों में जाने पर हम देखते हैं, कि सदियों पहले हमारा देश राज्यों में विभाजित था। इन राज्यों के राजा हिन्दू क्षत्रिय होते थे तथा जनता भी हिन्दू ही होती थी तथा वो चार जातियों में बटीं होती थी।

इनमें एक जाति क्षत्रिय, दूसरी ब्राह्मण, तीसरी वैश्य व चौथी जाति शूद्र होती थी। क्षत्रियों का कार्य राज्य करना व अन्य सभी जातियों की शत्रुओ से रक्षा करना होता था। दूसरी जाति ब्राह्मण राज्य में पूजा-पाठ व शिक्षा देने का जिम्मा उठाती थी। तीसरी जाति वैश्य समुदाय के लोग व्यापार करते थे और चौथी जाति शूद्र के कंधों पर साफ-सफाई करना व अन्य जाति के लोगो की सेवा करना आदि जैसे कामों का जिम्मा होता था।"

उस समय क्षत्रियों, ब्राह्मणों और वैश्यों को समाज में उचित सम्मान मिलता था, वहीं बेचारे शूद्रों को समाज द्वारा शोषित और अपमानित किया जाता था। तब जहाँ क्षत्रियों, ब्राह्मणों और वैश्यों को शिक्षा व अन्य सभी सुविधाएँ उपलब्ध थी, वहीं शूद्रों पर कई तरह के प्रतिबंध थे। इन्हें न तो शिक्षा प्राप्त करने और न ही मन्दिरों में जाने का अधिकार था। समाज के अन्य वर्गों द्वारा इनको प्रताड़ित भी किया जाता था। इन्हें अन्य जातियों द्वारा अछूत समझा जाता था और इनके साथ अमानवीय व्यवहार भी किया जाता था l ये दुर्भायपूर्ण किन्तु सत्य है, कि अतीत में हमारे समाज में ऐसा होता था।

हालाँकि वर्ण प्रथा (जाति प्रथा) शुरुआत से ही इसी रूप में चली आ रही हो, ऐसा नही था l वर्ण प्रथा की शुरुआत में जाति का निर्धारण कार्य के आधार पर होता था, जो व्यक्ति जैसा कार्य करता उसी के अनुरूप उसकी जाति होती। उदाहरणार्थ यदि कोई व्यक्ति पूजा-पाठ करने या शिक्षा देने का कार्य करता, तो उसे ब्राह्मण कहा जाता, लेकिन यदि उसका पुत्र व्यापार करने लगता तो उसे वैश्य कहा जाता था।

लेकिन समय बीतने के साथ ये प्रथा बदलने लगी और हमारा समाज वंश आधारित हो गया, अर्थात ब्राह्मण का पुत्र व्यापार करने पर भी ब्राह्मण ही कहलाए जाने लगा। वास्तव में यही चीज़ आगे चल कर समाज में बिखराब और आधुनिक बबाल की जड़ बनी। लोगों ने खुद को जातियों के बंधन में ऐसा बांध लिया, कि अब तक इस कुप्रथा की बेड़ियों के बंधन से मुक्त नही हो पाये हैं।

आजादी के बाद संविधान निर्माण के समय हमारे संविधान निर्माताओं को लगा, कि यदि समाज के इस उपेक्षित, शोषित वर्ग को अस्थाई रूप से कुछ समय के लिए संसद, राज्य विधानसभाओं, शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियों में आरक्षण दे दिया जाये, तो इन्हें भी समाज के अन्य वर्गों के साथ बराबरी करने का अवसर मिल जायेगा। इस आरक्षण से जब इनका उत्थान हो जायेगा, तब समाज के सभी वर्ग बराबरी पर आ जायेगें और फिर इस अस्थाई आरक्षण को समाप्त कर दिया जायेगा।

किन्तु दुर्भाग्यवश ऐसा हो न सका l आरक्षण की सारी मलाई कुछ लोग ही खा गए, बाकि लोगों के पल्ले कुछ भी नही पड़ा। उन बेचारों के हालात जस के तस ही बने रहे और दुर्भाग्वश आज भी वैसे ही हैं। आरक्षण की वजह से कुछ लोगों को छोड़कर, अधिकांश लोगों के जीवन में कोई खास सुधार नही आया। आर्थिक व सामाजिक रूप से उनकी अवस्था लगभग वैसी ही रही, जैसी पहले थी।

अलबत्ता इस आरक्षण ने विभिन्न वर्गों के बीच की खाई को और भी चौड़ा कर दिया। इसकी वजह से देश में जातिवाद और अधिक बढ़ गया l अधिकाँश लोग कट्टर जातिवादी हो गये और ये प्रथा अभी भी बदस्तूर जारी है। बल्कि इसका नतीजा यह हुआ है कि अधिकतर लोग अभी भी दूसरी जाति व दूसरे धर्म के लोगों को अलग चश्मे से देखते हैं। इस वजह से संविधान निर्माताओं की आरक्षण देकर कर उपेक्षित व शोषित वर्ग को अन्य वर्गों के बराबर लाने की सोच सही साबित नही हुई l

इस गलत आरक्षण नीति का फायदा उठाकर अनेकों लोग अयोग्य होते हुई भी अच्छे और महत्वपूर्ण पदों पर आसीन हो गये। जिसका नतीजा ये हुआ कि इसका खामियाजा हमारे देश व समाज को भुगतना पड़ा। बदकिस्मती से ये खतरनाक सिलसिला अभी भी जारी है l इस कारण इन अयोग्य लोगों की अयोग्यता देश के विकास में आड़े आ रही है।

आजादी के इतने दशकों बाद भी, आरक्षण की सुविधा मिलने के बावजूद भी इस वर्ग के लोगों की प्रगति क्यों नही हो पायी? इस बारे में जब मैंने गंभीरता से पड़ताल की तो पाया, कि इनकी प्रगति न कर पाने में हमारे नेताओं का बड़ा योगदान है। हमारे नेता इन बेचारों को चुनाव से पहले हर बार आरक्षण का झुनझुना थमा कर, इनको इनकी तरक्की के सब्जबाग दिखाते हैं, किन्तु वास्तव में कभी इनके विकास के लिए कोई काम नही करते।

इसकी वजह यह है कि हमारे नेता इस वर्ग के लोगों को अपना वोट बैंक समझते हैं और इनका इस्तेमाल भी इसी तरह से करते आये हैं। उन्हें ये लगता है, कि यदि ये लोग पढ़-लिख गये, इनकी उन्नति हो गयी, तो फिर ये लोग इन नेताओ के झांसे में नही आने वाले। फिर इन नेताओं की राजनीतिक रोटियाँ सिकनी बंद हो जायेंगी। इसीलिए ये नेता इन्हें सिर्फ सब्जबाग ही दिखाते हैं, इनके लिए करते कुछ भी नही।

मेरी यह बात लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों के अधिकाँश नेताओं पर लागू होती है। इसी का प्रमाण है, कि मात्र कुछ बर्षों के लिए लागू की गयी आरक्षण व्यवस्था देश में अभी भी जारी है, बल्कि आरक्षण का प्रतिशत और भी बढ़ गया है l यह व्यवस्था शुरू में हालांकि सिर्फ 10 वर्षों की अवधि तक के लिए ही निर्धारित थी, मगर समाज में समानता लाने का यह प्रयास असफल होने पर भी यह व्यवस्था अभी भी जारी है। अपना वोट बैंक खिसकने के डर से किसी भी पार्टी या नेता की इतनी हिम्मत नहीं है, कि यदि अनादि काल तक भी ये व्यवस्था जारी रहती है, तो भी वो इसका विरोध कर सकें।

आरक्षण को नेताओं ने अपनी राजनीति चमकाने का और अपनी असफलताओं पर पर्दा डालने का माध्यम बना लिया है। आरक्षण की आग लगा कर उसमें बेगुनाहों की आहूति देकर, अपने स्वार्थ की रोटियां सेकने वालो में पूर्व पीएम वी.पी. सिंह का विशेष स्थान है। आरक्षण की आड़ लेकर अपनी राजनीति चमकने की रेस में वी.पी. सिंह का पहला नं. आता है, जिनके नेतृत्व में बनी सरकार ने सन 1990 में अपने राजनीतिक विरोधियो को पछाड़ने के लिए आरक्षण का सहारा लिया था।

तत्कालीन जनता दल सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किया था। जिसका गठन जनता पार्टी सरकार के दौरान हुआ था और जिसने अपनी रिपोर्ट में पिछड़ी जातियों को 27 प्रतिशत आरक्षण देने की सिफारिश की थी। वी.पी. सिंह सरकार ने देश में आरक्षण की आग को बढ़ावा देकर, समाज को आरक्षण के मुद्दे पर बाँट कर आरक्षण का सबसे भयावह दृश्य दिखाया था।

इसी तरह अपने वोट बैंक को बढ़ाने के लिए यूपीए सरकार ने भी मुसलमानों के वोट बटोरने के लिए रंगनाथ मिश्र आयोग का गठन किया। जिसने यह सिफारिश की कि अल्पसंख्यकों को सरकारी नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में कम से कम 15 प्रतिशत आरक्षण दिया जाए। इन आयोगों ने आरक्षण की सिफारिश तो की, मगर इसका लाभ जरुरतमंदो तक पहुँचे, इस बारे कुछ भी सुझाव नहीं दिया।

आरक्षण के कारण समाज में बढ़ रहे विद्वेष से नेताओं का कोई लेना-देना नहीं है, उन्हें तो सिर्फ अपने वोटों से ही मतलब है। अतः ये नेता आधुनिक समय में आरक्षण के आप्रसंगिक और देश व समाज विरोधी होने पर भी इसे कभी भी समाप्त नहीं होने देंगे। इस कारण से यह सिलसिला खत्म नहीं हो रहा, बल्कि दिनों दिन बढ़ता ही जा रहा है। अब तो कुछ लोगों ने इसे राजनीति में आने का जरिया भी बना लिया है। हार्दिक पटेल व कुछ राजस्थानी गुज्जर नेता इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।

कोई माने या न माने, किन्तु सत्य यही है, कि आरक्षण समाज में सदभाव बिगाड़ने और पहले से चली आ रही बिषमताओं को जारी रखने का माध्यम बन कर रह गया है। क्योकि समाज में जो लोग गरीब, पिछड़े और अशिक्षित हैं, वो किसी एक वर्ग, जाति, धर्म या प्रान्त विशेष से संबंध नही रखते। इन गरीब, पिछड़े व अशिक्षित लोगों में सभी वर्ग, जाति, धर्म, व प्रान्त के लोग शामिल हैं। इनमे हिन्दू धर्म ही नहीं दूसरे अन्य धर्मों के लोग भी बड़ी संख्या में शामिल हैं, और तो और यहाँ तक की सवर्ण वर्ग के सम्पन्न समझे जाने वाले ब्राह्मण, वैश्य व क्षत्रिय लोगों की संख्या भी कम नहीं है।

देश के कर्णधारों से हमारा यह प्रश्न है कि ये जानते हुए भी, कि इस आरक्षण नीति का लाभ केवल कुछ लोगों को ही प्राप्त हो रहा है, अधिकांश जरूरतमंद लोग इससे वंचित हैं, मात्र वोटों के लिए इस कुरीति को जारी रखना कितना उचित है? क्या किसी को गरीब, अशिक्षित होने पर भी मात्र इसलिए कि वो आरक्षित जाति का नहीं है, उसे उसके हाल पर छोड़ देना कितना उचित है?

इसी तरह दूसरे धर्मों के गरीब, अशिक्षित लोगों की दुर्दशा जानते हुए भी, उनके उत्थान के लिए मात्र इसलिए कि वो आरक्षित वर्ग के नहीं हैं, कोई प्रयास नहीं करना कितना जायज है? मैं मानता हूँ कि पुराने समय में शूद्र कहे जाने वाले वर्ग के साथ अन्य वर्गों का व्यवहार कतई उचित नहीं था। इस वर्ग के प्रति अपनाये जाने वाला उनका दृष्टिकोण सही नहीं था। किन्तु क्या आज आरक्षण की रेवड़ी कुछ लोगों को बाँट कर अन्य वर्ग के गरीबों के साथ भी गलत व्यवहार व अन्याय नहीं किया जा रहा है?

मेरा मानना है कि यदि संविधान निर्माताओं ने आजादी के बाद नौकरियों में आरक्षण देने के बजाय पिछड़े व उपेक्षित वर्ग के लोगों को शिक्षित व योग्य बनाने पर जोर दिया होता, तो ज्यादा बेहतर होता। इससे पिछड़े वर्ग के लोग पढ़-लिख जाते, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें भी अन्य लोगों के समान समाज में सम्मान के साथ बराबरी से खड़े होने का अवसर मिल जाता।

अब भविष्य के लिए अच्छा तो यही होगा, कि नौकरियों में आरक्षण देने के बजाय यदि सभी को एक समान व मुफ्त शिक्षा प्रदान की जाए। जिससे सभी जाति, धर्म के लोगों को आगे बढ़ने के समान अवसर मिलेंगे। इससे सभी व्यक्तियों को योग्यतानुसार पद प्राप्त होंगे, जिससे देश को भी लाभ होगा और देश तरक्की कर सकेगा।

मेरा व्यक्तिगत रूप से भी यह मानना है कि नौकरियों में आरक्षण नहीं होना चाहिए, और जाति आधारित तो कतई नहीं। क्योकि इससे कई अयोग्य व्यक्ति भी ऐसे पद पा लेते हैं, जिनके वो योग्य नहीं होते। कई बार तो अयोग्य व्यक्ति इतने संवेदनशील व महत्वपूर्ण पद पर जा बैठते हैं, कि उनका इन पदों पर पहुँचना देश व समाज के लिए घातक सिद्ध होता है।

उदाहरण के लिए मान लीजिए यदि कोई अयोग्य व्यक्ति डाक्टर बन जाता है, तो वो अपने मरीजों का इलाज कैसे करेगा आप समझ सकते हैं? इसी तरह यदि कोई अयोग्य व्यक्ति, यदि तैतीस प्रतिशत अंक लाकर अध्यापक बन जाता है, तो वो कैसे निन्यानवे प्रतिशत पाने वाले विद्यार्थियों को शिक्षित कर पायेगा? इसी तरह यदि कोई अयोग्य व्यक्ति इंजीनियर या वैज्ञानिक बन जाता है, तो वो कैसे देश का विकास कर पायेगा ये भी आप समझ सकते हैं?

एक तरफ तो हमारे नेता देशवासियों को जाति-धर्म से ऊपर उठकर आगे बढ़ने की नसीहत देते हैं, मगर खुद तुच्छ राजनीति के लिए इन जाति-धर्म के बंधनो से मुक्त नहीं हो पाते हैं। हमें यदि देश का विकास करना है, तो इस जाति-धर्म के बंधनो को तोड़कर, सभी देशवासियों को एक नज़र से देखना होगा और आरक्षण समाप्त किये बिना ऐसा कर पाना सम्भव नहीं है।

हमें आरक्षण को पूरी तरह समाप्त कर, सभी देशवासियों को शिक्षित बनाकर, उन्हें आगे बढ़ने के समान अवसर देने चाहिए। जिससे सभी व्यक्ति अपनी योग्यतानुसार पद पा सकें तथा योग्य व्यक्ति ही महत्वपूर्ण व संवेदनशील पदों पर पहुँच सकें और देश व समाज का विकास कर सकें। जाति-धर्म के बंधन तोड़कर ही समाज में सदभाव लाया जा सकता है। देश का विकास किया जा सके, इसके लिए ऐसा करना जरूरी भी है। लेकिन ये तभी सम्भव है, जब हमारे नेता तुच्छ लाभ के लिए दिए जाने वाले आरक्षण को समाप्त कर दें और यदि ऐसा हो जाता है, तो हमे प्रगति करने से कोई नहीं रोक सकता।

Category:India



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Written by पुनीत शर्मा (काफिर चंदौसवी)

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