Raghav

Bhawani

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01 Jun '24
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।।1।। भवानी ।।

गोधूली का प्रहर था, सूर्य मानो धरती में समा जाने को आतुर था उसकी रक्त वर्णी किरणे धरती को भी स्वर्णीम आभा प्रदान कर रही थी, हरे भरे खेत में स्वर्ण रश्मि लहरा रही थी और मस्त पवन उनको जैसे पालने में लहरा रही थी और शंकर अपना सारा काम निपटा कर मस्त नील पर्वत की भांति उन खेतो पर अपने मजबूत कदम बड़ाता हुआ अपने घर जा रहा था। उसके धने काले घुंघराले केश से होती हुयी पसीने की बुँदे अस्त होते सूर्य की स्वर्णिम रश्मियां उसके माथे पर चन्द्रमा की भांति शुशोभित हो रही थी, पर शंकर मस्त बेखबर अपनी धुन मे गुनगुनाता हुआ चला जा रहा था।

शंकर के साथ ही एक स्थूल काया का स्वेतवर्णी प्राणी भी पीछे पीछे भागा जा रहा था जिसके चलने से उसके शरीर का प्रत्येक भाग स्पंदित हो रहा था। यह नन्दी था शंकर का मित्र, नहीं मित्र नहीं कह सकते, एक अलग ही सम्बन्ध था बाहरी दुनिया से परे, अलौकिक, जैसे प्रभु राम के साथ कपीश हनुमान। दोनो एक दुसरे के पूरक थे जहाँ शंकर वहाँ नन्दी।

शंकर घर पहुंचा तो पाया की पत्नी भवानी दरवाजे पर खडी उसकी रहा देख रही थी। शंकर थोडी सासं संभालते हुये बोला- पानी।

भवानी दौड़ कर घडे से शीतल जल ले आयी और शंकर को पकड़ा दिया। शंकर पानी पीने लगा। तभी भवानी बहुत ही शांत भाव से बोली " कल पिता जी के यहाँ जाना है"। शंकर के श्याम मुख पर अचानक कठोरता आ गयी, निश्चित ही अभी उसे इस प्रश्न की उम्मीद नहीं थी साथ ही भवानी के मुख पर आये निश्चय का आभास भी हो गया था, वह अपने घुघराले बालो को पीछे झटका देते हुये बोला - “पिता जी का निमंत्रण आया की नहीं ”।

"नहीं अभी तक तो नहीं" भवानी ने उत्तर दिया।

"देखो भवानी भाई, पिता, गुरु और मित्र के घर बिना बुलाये जाना सही हो सकता हैं, लेकिन बिना बुलाये जाने में मान नही है। उन्होने तुम्हारी तीनो बहनो उनके पतियों को भी निमंत्रण भेजा होगा किन्तु हम लोगो को भुला दिया। तुम्हारा वहाँ जाना उचित नहीं होगा"। शंकर ने भवानी को समझाने की व्यर्थ कोशिश की।

भवानी के पिता अमृत लाल जिला पाटन के कलेक्टर थे बहुत अच्छी शाख थी जिले में और अमृत लाल के यहाँ बड़े बड़े धन कुबेरो और नेताओ का आना जाना था, जिले का प्रत्येक व्यक्ति उनको अच्छे से जानता था। सरकार ने भी उनकी कार्यकुशलता देखते हुये बहुत बड़ा बंगला रहने को दे रखा था जो किसी हवेली से कम नही था।

व्यक्ति जब धन सम्पदा, मान मर्यादा से परिपूर्ण हो जाता हैं तो वह अहंकार वश उसका प्रदर्शन करने लगता हैं बस इसी अहांकार में आ कर अपनी ऐश्वर्यता का प्रदर्शन करने के विचार से अपने नये घर के ग्रह प्रवेश में एक बहुत बड़ी पार्टी का आयोजन अपने निज निवास पर किया। जिसमें उसने अपने साथ के दोस्त, देश विदेश के साथी, रिश्तेदारो एवं मित्रगणो को बुलावा भेजा। पूरा परिवार आज इक्कटठा होने वाला था सिर्फ भवानी को छोड़ कर।

भवानी कभी अपने पिता की सबसे लाडली बेटी हुआ करती थी उसकी एक माँग पर सब कुछ उसके समक्ष हाजिर हो जाता था। लेकिन समय ने करवट ली युवा अवस्था आते आते उसका परिचय उसके विश्वविद्यालय में पड़ने वाले भोले भाले यूवक शंकर से हो गया। बस यही से उसके और पिता के बीच मतभेद प्रारम्भ हो गये, उसकी शंकर के साथ या कहे की संगत से माँगे कम हो गयी वह कम में ही समझदारी से अपने कार्य करने लगी।

फिर वो दिन भी आया जब उसने अमृत लाल से शंकर से विवाह करने की आज्ञा माँगी। अमृत लाल के यश्वस्वी, धनी, ऐश्वर्यशाली और अहंकारी मन को बहुत गहरा आधात लगा, उसने भवानी को बहुत समझाया बहुत लालच भी दिया किन्तु शंकर और भवानी को एक दूसरे से कम कुछ भी नही चाहिये था। भवानी और शंकर का विवाह हो गया और अमृत लाल के मन में एक गांठ पड़ी जो आज एक भयानक परिस्थिती पैदा करने वाली थी।

अचानक शंकर की तांद्रा टूटी तो उसने भवानी की तरफ देखा भवानी के सुन्दर चेहरे पर अत्यधिक पीड़ा झलक रही थी अगर वहाँ जाने के विषय में शंकर कुछ शब्द और बोलता तो निश्चित ही वो रो पड़ती।

शंकर भवानी की मनःस्थिती को देखते हुये बोला "चलो अच्छा तुम जाओ और इस कार्यक्रम में शामिल हो, मैं नन्दी को भी तुम्हारे साथ भेजता हैं, वो तुम्हे पाटन तक ले जायेगा"।

भवानी और नन्दी पाटन जाने को तैयार हो गये, भवानी कई वर्षों के बाद अपने मायके जाने और अपनी माँ, बहन एवं अन्य बन्धु बान्धवो से मिलने की खुशी में शंकर की आँखो में आने वाली किसी अप्रत्याशित घटना के होने का ज्ञान नहीं हो सका।

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समारोह की सजावट अत्यन्त दर्शनीय थी, निश्चय ही जिले में इतना भव्य समारोह पहले किसी ने नहीं किया था। चारो तरफ इन्द्रधनुषी रोशनी से पूरा घर नहाया सा लग रहा था किसी महल की तरह जगमगा रहा था पांडाल भी बेहद खूबसूरत फूलो से सजाया गया था, आने वालो की कही एक जगह दृष्टि टिक ही नही रही थी। इस भव्यता को आने वाले मेहमान और बड़ा रहे थे सब एक से बड़ कर एक महगें सूट, परिधान पहने हुये थे कोई भी किसी से इतर नही था। अमृत लाल आगे बड़-बड़ कर बड़ी ही गर्मजोशी से प्रत्येक मेहमान का स्वागत कर रहे थे एवं सबको उनके अनुसार उचित स्थान पर बैठा रहे थे।

भवानी ने भी तभी पंडाल में प्रवेश किया, बहुत ही सुन्दर किसी देवी की भाँति उसका आगमन हुआ, साथ ही अमृत लाल की नजर भी भवानी पर पड़ीं लेकिन अतीत की यादो का चलचित्र अहंकारी मस्तिष्क में चलते ही वे एक दूसरे मेहमान को ले कर दूसरी तरफ चले गये, भवानी को कुछ अटपटा सा जरूर लगा, फिर अपने मन को समझाते हुये सोचा की इतने मेहमान हैं सायद पिता जी ने ध्यान न दिया हो। तभी उसकी नजर अपनी छोटी बहन दिव्या पर पड़ी जो अपने पति अरविन्द के साथ खड़ी थी, ऊपर से लेकर नीचे तक महँगे जेवरो से सजी हुयी बनारसी साड़ी पहने हुये अत्यन्त आर्कषक एवं वैभवशाली प्रतीत हो रही थी।

भवानी को उसके साथ बिताये अपने बचपन की सारी यादे ताजा हो गयी, कितना चाहती थी दिव्या उसको और कभी छोड़ती ही नही थी हर काम में दीदी ये, दीदी ऐसा करो दीदी वैसा करो और दिन भर उसके गले से झूलती रहती थी। भवानी सब याद करते बहुत ही अपने-पन से दिव्या की तरफ बड़ी उसके करीब पहुँच कर उसके कंधे पर हाथ रखा और बोली- "कैसी हो दिव्या" दिव्या ने पलट कर देखा भवानी को सामने खड़ा पा कर कुछ अनमनी सी हो कर बोली "अरे दीदी कब आयी तुम"।

भवानी दिव्या को गले लगाने बड़ी तो दिव्या ने अपने पति को आवाज दी और बोली - "दीदी आती हूँ जरा" और भवानी को वही अकेला छोड़ कर आगे बड़ गयी।

भवानी अपनी जगह बुत की तरह जम गयी और सोचने लगी- "ये वही दिव्या हैं जो कभी मेरे बिना खाना भी नही खाती थी"।

तभी राधिका और भवानी की नजर आपस में मिली, ये दिव्या से बड़ी बहने थी। वो भी भवानी को अनदेखा कर दिव्या की ओर बड़ गयी भवानी को कुछ समझ नही आ रहा था की ये क्या हो रहा हैं। भवानी की मनोदशा इस समय मरुस्थल की उस मरिचिका की भाँति थी जिसमे पानी दिखता तो हैं किन्तु पानी कही मिलता नही हैं। धीरे धीरे यहाँ के बनावटी वातावरण से भवानी का मन रोष से भरता ही जा रहा था और वो मनही मन पछता रही थी कि उसने शंकर की बात क्यो नही मानी।

अचानक ही इस शुष्क मरूभूमि में भवानी को अपने कंधे पर किसी के प्रेम भरे हाथ का शीतल अनुभव हुआ, वह तेजी से पल्टी देखा तो माँ खड़ी थी।

"अरे भवानी तू कब आयी ??" और बड़े ही प्रेम से भवानी को गले लगा लिया, उसकी तप्त आत्मा पर मानो किसी ने ठंडे जल की बरसात कर दी हो और उसकी रोष की उष्मा में जल वाष्प बन कर उसके निर्मल हृदयसे होते हुये आँखो में छलक आयी।

"चल मेरे साथ अकेले क्यो खड़ी हैं शंकर कहा हैं" भवानी का हाथ पकड़ कर अनेको प्रश्न कर दिये।

परन्तु भवानी उसके एक भी प्रश्न का उत्तर न दे सकी, बस अपनी नम आँखो को छिपाती हुयी माँ का हाथ पकड़ कर उसके साथ चल दी।

माँ ग्रह प्रवेश की समस्त तैयारी की देख रेख कर रही थी, सजावट वाला, खाने वाला, मेहमानो की देख रेख, पूजा का सामान, सब कुछ माँ ने अपने हाथो में ले रखा था। तभी माँ ने मामा से पूछा - "राजन पंडित जी आये की नहीं, उनके बिना कोई कार्य प्रारम्भ नहीं होगा"।

"अभी ले कर आता हैं दीदी" राजन घबड़ाते हुये बोला और पंडित को बुलाने चला गया। मामा कुछ ही देर में वापस आ गये और माँ से बोले - "दीदी पंडित जी तो नही आ पायेगे उन्हे बहुत तेज बुखार हैं"

माँ अपना सर पकड़ कर बैठ गयी और बोली - "अब मैं पंडित कहेंग से लाऊ??" और मामा पर बुरी तरह से बरस पड़ी।

तभी मुझे याद आया की मेरी शादी में शंकर की जान पहचान का पंडित आया था मैने उसका पता मामा को दे कर बुलाने भेज दिया। माँ के चेहरे पर कुछ संतुष्टी के भाव उभर आये उन्होने मेरा हाथ पकड़ लिया और लगभग मुझे खींचते हुये पिता जी की तरफ बड़ी।

अमृत लाल इस समय कई साभ्रांत लोगो के साथ जो अपने-अपने क्षेत्र में उत्कृष्ट स्थान रखते थे से घिरे खड़े थे पास ही तीनो बहने अपने अपने पतियों के साथ खड़ी बाते कर रही थी। माँ ने पिता जी को बुलाया- "जरा सुनिये देखिये कौन आया हैं"।

"हाँ-हाँ मै मिल चुका हूँ " अमृत लाल ने भवानी को उपेक्षित करते हुये कहा।

तभी पास खड़े झारखण्ड के एक विधायक राजा दिनेश सिंह बोल पड़े "अरे अमृत आपने अपने परिवार से तो मिलाया ही नहीं" उनकी खनकती रौबदार आवज सुन कर आस पास खडे अन्य भद्रजन भी उसके साथ शामिल हो गये।

"हाँ हाँ क्यो नही राजा साहब, ये मेरी धर्मपत्नी श्रुति, ये मझली बेटी राधिका और उसके पति राजेश जो शामली में डीएम के पद पर हैं और ये सबसे छोटी दिव्या और इसके पति अमित विक्रम सिंह जो रांचि में एसएसपी का पद संभाल रहे है" - अमृत लाल ने भवानी को फिर आहत किया।

जब पुरुष के पास सीमा से अधिक धन-सम्पदा, मान मर्यादा, प्रतिष्ठा पा जाता है तो वो भविष्य में जाने अंजाने अपने अहांकार पर होने वाली चोटो का बदला अपनो से भी लेने लगता हैं। इसकी चमक में अपना विवेक खो बैठता हैं। इसी कड़ी मेंअमृत लाल ने भी भवानी के सरल हृदय में रोष की अग्नि प्रज्जवलित करता जा रहा था और उस ताप का वो अनुभव भी नही कर पा रहा था कि भवानी का यह निर्दोष ताप उसके लिये कितना अनिष्टकारी होने वाला हैं।

"ये आप की बड़ी बेटी हैं" राजा दिनेश सिहं भवानी की तरफ देख कर बोले।

इस बार अमृत लाल का मुख अत्यधिक कठोर हो चला और बडे अभिमान से चेहरे पर व्यंगता लाते हुये बोले "हाँ ऽऽ, ये मेरी बड़ी बेटी भवानी है और इसके पति का मैं क्या परिचय दू वह तो स्वयं अवधूत मस्तमलंग गॅाव का, गाय-गोरु, मिट्टी और आदिवासियां के साथ निवास करने वाला शंकर हैं"।

भवानी अपने हृदय में उठते आंतरिक आवेग का दबा कर अपने पिता की झूठी शान को संचित करते हुये अपने मुख पर आने वाले प्रत्येक भावना को दबा गयी और चुप चाप माँ का हाथ कस कर पकड़ लिया।

"अरे ये वही त्रिपुरारी शंकर हैं न जिनकी उत्तराखण्ड में तीन इस्टेट थी जिसको शंकर ने राष्ट्र के नाम समर्पित कर दिया था और खुद प्रकृति की गोद में एक गांव ही लिया था" - राजा दिनेश सिंह ने अपनी शंका दूर करनी चाही।

तभी पास खड़े प्रोफेसर विभूति बोल पड़े "अरे शंकर तो मेरी ऋषिमुख यूनीवसर्टी में भोले नाम से प्रसिद्ध था बहुत ही कुशाग्र बु‌द्धि का था, पूरी यूनीवर्सटी के अध्यापक और छात्र उसका सम्मान करते थे, सबका मित्र भाई था छात्र तो उसके लिये मर मिटने को तैयार थे, शंकर ने अपने मित्रो - सोमेन्द्र, वीर सिंह, अंगद और जामूके साथ मिल कर बहुत लोगो का जीवन ही बदल दिया"।

"अरे प्रोफेसर साहब उन्ही में तो मैं भी शामिल हूँ अगर शंकर न होता तो आज मैं भी न होता और मेरी विधायकी भी न होती। शंकर की वजह से मैं आज यहाँ पहुँच सका हूँ, मुझे आज भी याद हैं मेरे क्षेत्र में नक्सलवादी थे उनका आतंक चरम पर था वो कुछ अच्छा बुरा नही समझते थे और आदमी की जान की कीमत तो बिल्कुल ही नही, तब इन सब ने मिल कर उन्हे पाठ पढ़ाया और नक्सलवाद को ही खत्म कर दिया" राजा दिनेश सिंह बड़ी ही कृतज्ञता से बोले।

शंकर के न रहते हुये भी शंकर का अवधूत प्रभाव धीरे धीरे सबको अपने अवरण में लेता जा रहा था और अमृत लाल के विद्ववेश को और बड़ाता जा रहा था, इन सब बातो से उसके अहम को गहरी चोट पहुँच रही थी, धीरे धीरे वह विवेक शून्यता की तरफ बड़ रहा था क्रोध उसके ऊपर सवार होता जा रहा था जिसका असर अब प्रत्यक्ष उसकी आँखो में आयी लालीमा में भी उतर आया था। अमृत लाल का गुस्सा और आक्रोश शंकर के लिये मन में नफरत भरता ही जा रहा था, अब रह रह कर उसके शरीर में कम्पन भी उत्पन्न हो रहा था, फिर भी उसने अपने आप को संभाल रखा था और इन सब बातो को छोड़ना चाहता था क्यो की यह उसके अहम को तुष्ट नहीं कर पा रही थी।

"श्रुति चलो पूजा प्रारम्भ कराओ, अरे पंडित जी को बुलाओ वो आये की नहीं" बात को वही खत्म करते हुये अमृत अपनी पत्नी से बोला। श्रुति कुछ बोलती उससे पहले ही मामा पंडित के साथ सामने आ खड़े हुये, उन्होने अमृत लाल की आवाज सुन ली थी।

"जीजा जी पंडित जी आ गये है" मामा बोले, अमृत लाल की नजर जैसे ही पंडित जी पर पड़ी उसका रोम रोम क्रोध से सुलग उठा और पाँच वर्ष पूर्व भवानी के विवाह का परा दृश्य उसकी आँखो के सामने से गुजर गया, उसकी आँखो में आक्रोश के कारण खून उतर आया और बहुत ही आवेश में अपना विवेक खोते हुये लगभग चिल्लाते हुयं बोला - "अरे दुष्ट अग्नि तुझे किस मूर्ख ने यहाँ बुला लिया, तेरी हिम्मत कैसे हुई दुबारा मेरे सामने आने की"।

अग्नि लगभग पचपन साल का तेजस्वी ब्रहमण था जो शंकर के साथ रहा था और शंकर को बहुत मानता था। "मुझे भवानी का संदेश आया तो मैं चला आया, वरना तुम्हारे जैसे मूर्ख अभिमानी के घर मुझे आने में कोई प्रसन्नता नहीं हैं" अग्नि ने भी उतने ही आवेश में उत्तर दिया। उसके मुख से इस प्रकार का उत्तर सुन कर चारो तरफ सन्नाटा छा गया। भवानी भी एक क्षण के लिये स्तब्ध रह गयी की ये क्या हो रहा हैं।

नन्दी बहुत देर से इस सारे घटना क्रम को देख रहा था और उसका अन्तर्मन किसी अप्रीय घटना की ओर इशारा कर रहा था, कुछ समझ न आने पर उसने पहले ही शंकर को इससे अवगत कराने और बुलाने के लिये अपना वाहन भेज दिया था, क्यो कि शंकर इस समय इसी शहर में था, वह बिना बताये भवानी के जाने के बाद यहाँ आ गया था क्यो कि शंकर भवानी के सरल हृदय और तीक्ष्ण आवेश से भलि भाँति परिचित था और अमृत लाल के आचरण से भी, क्यों कि वह अपनी आत्म तुष्टी के लिये किसी भी हद तक जा सकता हैं। उसके यहाँ होने की बात केवल नन्दी और वीर सिंह को ही ज्ञात थी। वाहन के साथ वीर सिंह शंकर के पास पहुँचने पर सब कुछ बताया, तो शंकर तुरन्त ही वीर के साथ अमृत लाल के घर की तरफ चल पड़ा।

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जब अग्नि व अमृत लाल आपस में वाद विवाद कर रहे थे तो भवानी माँ का हाथ पकडे आयी उसने अग्नि को रोका "अग्नि चुप रहो शंकर के वास्ते चुप हो जाओ"।

लेकिन अमृत लाल चुप होने का नाम नही ले रहे थे उसका क्रोध क्षण-प्रतिक्षण बड़ता जा रहा था, अब उनकी स्थिती विक्षिप्तता पर पहुँच चुकी थी उनको किसी भी मेहमानो के होने का भान नही था, बस वो अग्नि और शंकर को अपशब्द बकने में लगा था उसने शंकर के प्रति अपशब्दो की बाड़ लगा दी।

उसका असर भवानी के निश्चल मन पर बहुत तेजी से हो रहा था, वह अपने आपको पूर्ण रूप से अपराधी महसूस कर रही थी उसका मन चरम सीमा तक आहत हो चुका था, अब वह कुछ भी सुनना नहीं चाहती थी और शंकर के विरुद्ध तो एक शब्द भी नहीं। लेकिन अब अमृत लाल की निकृष्टता की कोई सीमा नहीं रह गयी थी।

अचानक भवानी के सौम्य, सुन्दर मुख, जो अभी तक अपने पिता से याचना की मुद्रा में था कठोर हो उठा और चेहरे की मांस पेशीया किसी अनन्य निश्चय से खिंच गयी, उसने जोर से माँ का हाथ झटका और बहुत ही वेंदना एवं पीड़ा लिये हुये घर के अन्दर की तरफ दौड पड़ी, किसी अनिष्ट की आशंका से पीछे पीछे माँ और तीनो बहने भी भागी।

ठीक उसी समय शंकर और वीर सिंह ने भी पांडाल में प्रवेश किया और जिधर से शोर उठ रहा था उस ओर लगभग दौडते हुये भागा, रास्ते में नन्दी भी मिल गया उसने भवानी की मनःस्थिती के बारे में शंकर को अवगत कराया। शंकर जब घर के दरवाजे पर पहुँचा तो देखा की अमृत लाल और अग्नि अब भी आपस में भिड़े हुये थे और एक दूसरे को नीचा दिखाने की हर सम्भव कोशिश कर रहे थे और अन्य मेहमान खड़े तमाशा देख रहे थे।

"भवानी कहाँ है उसे तुरन्त बुलाओ" शंकर ने आते ही तेज आवाज में कहा।

"तू कहाँ से आ मरा दुष्ट आदिवासी चल निकल यहाँ से वरना धक्के दे कर बाहर करवा दूगां" अमृत लाल पागलपन की उच्च स्थिती में पहुँच चुका था जो सारी सीमाये तोड़ने को तैयार थी।

जब व्यक्ति क्रोध में होता हैं तो उसका मूल आचरण सामने आ ही जाता हैं और क्रोध में वैसा ही आचरण करता हैं मान मार्यादा, अपना पराया सब भूल जाता हैं जिसका असर स्वयं पर ही नहीं बल्कि उससे जुडे प्रत्येक व्यक्ति पर पड़ता हैं फिर चाहे वह आपका कितना भी प्रिय क्यो न रहा हो, कभी कभी तो दूसरे पर इस हद तक असर होता हैं की दूसरा ऐसे आचरण से आहत हो कर अपनी इहलीला समाप्त कर लें।

अचानक घर के भीतर से श्रुति की दर्दनाक चीख उभरी "नहींssssभवानी ऐसा मत करो, दरवाजा खोलो, तुम्हें तुम्हारे शंकर की कसम ऐसा मत करा" लेकिन भवानी तब तक सब बन्धनो से मुक्त हो चुकी थी।

श्रुति और बहने रोती हुयी बाहर की तरफ भागी की कोई दरवाजा खोल दे! शंकर के कानो में जब यह चीख पड़ी तो किसी अनिष्ट की आशंका से उसका हृदय कांप उठा, अब उसे भवानी की चिंता थी, इस वक्त समय मानो रूक गया था या कहे की समय की गति भी उस करूण क्रंदन से थम सी गयी थी।

शंकर ने जैसे ही अपना कदम घर की तरफ बढ़ाया, अमृत लाल आ कर शंकर से भिड़ गया उसे धक्का देने लगा, लेकिन किंचित मात्र भी शंकर को वह अपने स्थान से नहीं हिला पाया, पर शंकर की आँखो के सामने केवल भवानी का सौम्य चेहरा था उसको न तो कुछ सुनाई पड़ रहा था और न कोई दिखाई, उसने अमृत लाल को एक हाथ से जोर से धक्का दिया जिसे अमृत लाल सभांल न सका और सीधे पास रखी चौकी पर औंधे मुँह गिरा जँहा चौकी पर महादेव की पीतल की मूर्ति त्रिशूल लिये विराजमान थी और महादेव का त्रिशूल अमृत लाल की गर्दन को भेदता हुआ उसकी कंठिका में घुस गया और अमृत लाल के मुख से एक बकरे की भाँति जोर से चीख निकली, तब तक शंकर भवानी की दिशा में दौड़ लगा चुका था। लेकिन भवानी, भवानी तो अनन्त को सिद्ध हो चुकी थी।

किन्तु आज शंकर की वो पूरी दुनिया उजड़ चुकी थी शंकर विक्षिप्त सा हो गया था उसको कुछ सूझ नहीं रहा था बस पागलो की भाँति चिल्ला रहा था विलाप कर रहा था कि कोई तो मेरी भवानी को उठाओ देखो वो सो रही है उठ नही रही है और विलाप करते करते वह अपने होशो हवास खो बैठा और बेहोश हो गया। जब होश आया तो वो शमशान में था भवानी भी अग्नि को समर्पित हो चुकी थी।

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                                                                                                                क्रमशः

Category:Fiction



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Written by Bhaarat Tomar

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