लाख लगाएं फिल्टर पर असलियत छुपा न पाए,
मन का मैल मिटा नहीं और तन मखमली पहनाए,
खूब मीठा पान खाए पर जुबा पर बुराई ही आए,
प्रिय लगे बुराई सबकी, अपनी सुने तो सुलग जाए
धनवान के आगे गिरवी अपना ईमान किए
जब तक अपना काम बने
खूब धों धों कर पाव पिये
काम निकल जावे
तो
तू कौन मैं कौन बस अपना स्वार्थ सिद्ध किए ।।
कह दी अगर बात अगर मन की
सबसे बड़ा दुश्मन बन जाए
कौन आकर कैसे समझाये
सुनना कौन किसकी चाहे
लाख लगाएं फिल्टर पर असलियत छुपा न पाए,
मेरी कलम
एकबार फिर से
यह कविता आज के आधुनिक समय और परिदृश्य को देखकर लिखी गई है लोगों के मन में बहुत कुछ चलता है भीतर बहुत कुछ भरा हुआ है लेकिन सामने कुछ और दिखाते हैं इतने मखमली चेहरे और इतने नकाब पहने हुए हैं कि अगर हटाते भी जाओ तो नकली चेहरे हटते नहीं।।।।
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