" तू नहीं है, केवल तेरा यश और कीर्ति है। जब तक यह देश है, और जब तक संसार में दृढ़ता, उदारता, स्वतंत्रता और तपस्या का आदर है तब तक हम क्षुद्र प्राणी ही नहीं, सारा संसार तुझे आदर की दृष्टि से देखेगा। संसार के किसी भी देश में तू होता तो तेरी पूजा होती और तेरे नाम पर लोग अपने को न्योछावर करते।"
'प्रताप' साप्ताहिक के प्रवेशांक में प्रकाशित "कर्मवीर महाराणा प्रताप" शीर्षक निबंध के ये शब्द निबंधकार गणेश शंकर विद्यार्थी ( 26 अक्टूबर, 1890 - 25 मार्च, 1931 ) के बारे में भी सर्वथा सटीक बैठते हैं। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए अपने जीवन का बलिदान करने वाले गणेश शंकर विद्यार्थी उच्च कोटि के निबंधकार, पत्रकार तथा ऐसे इतिहास-पुरुष थे जिन्होंने राष्ट्रप्रेम, उत्सर्ग, कर्त्तव्यपरायणता, दृढ़ता और निर्भीकता का अभिनव आदर्श प्रस्तुत किया। उन्होंने एक तरफ अपनी सत्यनिष्ठा, नैतिकता और ईमानदारी द्वारा तत्कालीन राजनीतिक जीवन को समृद्ध बनाया, दूसरी तरफ हिन्दी की उल्लेखनीय सेवा की। उनके द्वारा लिखे गए राष्ट्रीय चेतना से सम्पृक्त भावप्रवण निबंध हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि हैं।
24 मार्च, 1931 की सुबह गणेश शंकर विद्यार्थी को भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव की फांसी की खबर मिली। दिन भर वे कानपुर में शोक सभाओं के आयोजन और हड़ताल के आह्वान में व्यस्त रहे। अंग्रेज अधिकारियों द्वारा शहर में सोद्देश्य दंगे शुरू करा दिये गए। रात में जब विद्यार्थी जी ने शहर कोतवाल से दंगों पर नियंत्रण करने का अनुरोध किया तो जवाब मिला, "इसके लिए आप अपने गांधी को बुलाइए।" इस पर विद्यार्थी जी का प्रत्युत्तर था, "हमारे रहते गांधी जी को तकलीफ़ करने की क्या जरूरत?" इतना कहकर वे दंगों की आग बुझाने निकल पड़े और 25 मार्च को दंगे में फंसे मुसलमानों और हिन्दुओं की प्राणरक्षा करते हुए शहीद हो गए। विद्यार्थी जी की शहादत धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद की नींव का पत्थर साबित हुई। अपने प्राण देने से पहले उन्होंने पत्रकारिता के माध्यम से साहित्य और समाज की जो अकूत सेवा की, उसके लिए उन्हें सदैव याद किया जाएगा।
अपने युग के किसी भी अन्य राष्ट्रीय नेता की अपेक्षा विद्यार्थी जी की गतिविधियां अधिक विविध और सांस्कृतिक दृष्टि से अधिक समृद्ध थीं। वे हमेशा भविष्य के भारत का स्वप्न देखते थे और उपनिवेशवाद के विरुद्ध चलाया जाने वाला स्वाधीनता संग्राम उनकी दृष्टि में अंग्रेजों के खिलाफ ही नहीं, बल्कि अपने समाज की बुराइयों के खिलाफ भी चलाया जाना चाहिए था। जिन बुराइयों को उन्होंने चिह्नित किया था, उनमें साम्प्रदायिकता का स्थान सबसे ऊपर था। अपनी लगभग सभी रचनाओं में उन्होंने इस बुराई से लड़ने की बात कही है। उनका मानना था कि साम्प्रदायिकता से संघर्ष करने और धर्मनिरपेक्ष समाज बनाने का एक ही तरीका है - “ ....... समाज के कुछ सत्यनिष्ठ और दृढ़-विश्वासी पुरुष धार्मिक कट्टरवाद के विरुद्ध जिहाद शुरू कर दें। जब तक यह मूर्खता नष्ट न होगी,तब तक देश का कल्याण न होगा। समझौते कर लेने, नौकरियों का बंटवारा कर लेने और अस्थाई सुलहनामे लिखकर हाथ काले करने से देश को स्वतंत्रता न मिलेगी। हाथ में खड्ग लेकर, तर्क और ज्ञान की प्रखर करवाल लेकर आगे बढ़ने की जरूरत है।”
विद्यार्थी जी ने हिन्दू - मुसलमान को एक मां के दो बेटों के रूप में पेश किया और राष्ट्रीयता के निर्माण को समुद्र-मंथन की संज्ञा दी। उन्होंने साम्प्रदायिकता की समस्या को केन्द्र में रखकर 'जोश में न आइए ', 'उन आत्माओं से ', 'जिहाद की जरूरत ', 'हिन्दू-मुस्लिम विद्वेष और भारत सरकार ', 'समुद्र मंथन ', 'परीक्षा और प्रार्थना ', आदि अनेक लेख लिखे। इन लेखों में उन्होंने कबीर की भांति हिन्दुओं को उनकी संकीर्णता के लिए धिक्कारा और मुसलमानों को उनकी कट्टरता के लिए फटकार लगाई। उन्होंने बिना झिझक के ऐसी नागरिकता का आह्वान किया जो राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत जागरूक समाज के निर्माण में सहायक हो। वे धर्म की कसौटी विज्ञान, तर्क और बुद्धि को मानते थे। कर्मकाण्डों से नफ़रत करना और अंधविश्वासों को ठोकर मारना उनके स्वभाव का हिस्सा था।
विद्यार्थी जी को उम्मीद रही होगी कि जब हम अपने मालिक स्वयं हो जायेंगे अर्थात अंग्रेजों की गुलामी का जुआं हमारी गर्दन से उतर जायेगा, तब सम्भवतः हमारा सार्वजनिक जीवन बेहतर होगा, पर अफसोस कि ऐसा हुआ नहीं।
28 जून, 1920 को साप्ताहिक 'प्रताप' में प्रकाशित उनके लेख 'हमारा सार्वजनिक जीवन' का एक उदाहरण देखिए और फिर आज के सार्वजनिक जीवन से उसकी तुलना कीजिए। दंग रह जाएंगे आप। “ ............ शायद इसीलिए हमारे दबे हुए सार्वजनिक जीवन में जो तड़क-भड़क दीखती है, वह रोग और विष से भरी हुई है। ........ जो सौजन्य और शिष्टता की मूर्ति थे, जो देशभक्त और त्याग के अवतार थे तथा तपस्या के प्रतिरूप थे, जो प्रभुओं के उपेक्षक और दासों के दास थे; आंखें आश्चर्य से देखती हैं कि वे अशिष्टता और स्वार्थ के मैदान में सरपट दौड़ लगा रहे हैं। गालियां और बुराइयां उनके मुंह और कलेजे के भूषण हो जाती हैं। नेकनीयती केवल उन्हीं के पल्ले रहती है और बेइमानी का कलंक दूसरों के माथे पर। खूब दौड़ लगाते हैं, खूब एड़ी-चोटी का पसीना एक कर देते हैं परंतु देश की किसी आवश्यकता को पूरा करने के लिए नहीं, अपने को प्रतिष्ठित और शक्तिशाली बनाने ही के लिए।"
तत्कालीन पत्रकारिता की नैतिक स्थिति का दर्शन विद्यार्थी जी के एक लेख में कुछ इस प्रकार होता है - “ जिन लोगों ने पत्रकार कला को अपना काम बना रखा है उनमें बहुत कम ऐसे लोग हैं जो अपनी चिन्ताओं को इस बात पर विचार करने का कष्ट उठाने का अवसर देते हों कि हमें सच्चाई की लाज रखनी चाहिए। केवल अपनी मक्खन-रोटी के लिए दिनभर में कई रंग बदलना ठीक नहीं है। ....... उन्नति समाचारपत्रों के आकार-प्रकार में हुई है। खेद की बात है कि उन्नति आचरणों की नहीं हुई।”
स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग लेने के कारण विद्यार्थी जी को अनेक बार जेल जाना पड़ा था। 'जेल जीवन की झलक ' शीर्षक एक लेख में उन्होंने 'छोटे' हृदय वालों का ऐसा जीवन्त वर्णन किया है कि पढ़ते ही बनता है - " 'छोटे' हृदय वाले सदा ऐसा ही करते हैं। जब उनके सामने भय होता है तो वे चरणों के नीचे की धूल चाटते हैं और जब उन्हें किसी बात का डर नहीं रहता तो घमंड में चूर हो जाते हैं और आकाश तक सिर पर उठाकर चलने का प्रयत्न करते हैं।" निस्संदेह विद्यार्थी जी विशाल हृदय वाले महामानव थे। उन्हें छोटे हृदय वाले यावज्जीवन तंग करते रहे, पर वे कभी पथ-विचलित नहीं हुए।
" देखो कितनी बहादुरी से हंसते हुए बिना खाए-पिए अपने भाइयों के हाथ से उसने मृत्यु पायी! ...... मुझे विद्यार्थी जी के बलिदान पर गर्व है तथा मैं चाहता हूं कि जैसी मौत विद्यार्थी जी को मिली, वैसी ही मुझे मिले।" - यह कहकर महात्मा गांधी ने उनकी मौत को स्पृहणीय तथा वंदनीय बताया था। ऐसी मौत मरने वाले वस्तुत: कभी मरते नहीं। मरकर अमर हो जाते हैं ऐसे वीरपुंगव। युगों-युगों तक इतिहास ऐसे बलिदानियों का गुणानुवाद गाता है, गाता रहेगा। अन्त में, मुझे याद आ रही हैं डाॅ. सूरज प्रसाद शुक्ल की ये कालजयी पंक्तियां -
" राष्ट्र अकिंचन दे सकता क्या बलिदानों का मोल!
बलिदानी के चरण चूमते हैं भूगोल - खगोल।।
देने को श्रद्धा है केवल लेने को बस नाम।
यही बचा है पास हमारे, हे शहीद ! अभिराम।।
ग्रहण करो हम सब की श्रद्धा के ये सादे फूल।
जिस मग पर तुम चले, हमें दो बस उस मग की धूल।।
@ महेश चन्द्र त्रिपाठी
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