कलम और क्रांति के सिपाही बाबूराव विष्णु पराड़कर का जन्म काशी में 16 नवंबर 1883 ई. को एक मराठी भाषी परिवार में हुआ था। मातृभाषा मराठी होते हुए भी उन्होंने हिंदी पत्रकारिता को नया स्वरूप, नयी दिशा और नयी गति प्रदान की। उनके द्वारा सम्पादित समाचारपत्र 'आज' ने पत्रकारिता के श्रेष्ठ मानकों- मानदंडों- की स्थापना कर अकूत ख्याति अर्जित की।
जिस समय आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी 'सरस्वती' के माध्यम से हिंदी को संस्कारित कर रहे थे, उसी समय पराड़कर जी 'आज' के माध्यम से हिंदी भाषा, साहित्य एवं पत्रकारिता को प्रतिष्ठित करने हेतु प्राणपण से प्रयास कर रहे थे। द्विवेदी जी की ही भांति उन्होंने भी आजीवन संघर्षों से जूझते हुए हिंदी भाषा एवं साहित्य के विकास का पथ प्रशस्त किया।
पत्रकारिता के क्षेत्र में पराड़कर का प्रवेश 1906 ई. में हिंदी 'बंगवासी' के माध्यम से हुआ था। इसमें कुछ समय तक कार्य करने के उपरांत उन्होंने कलकत्ता ( कोलकाता ) से ही प्रकाशित 'हितवार्ता' और 'भारत मित्र' को अपनी अमूल्य सेवाएं दीं। उन्होंने इन पत्रों में तत्कालीन राजनीति की बखिया उधेड़ कर जनमानस को नयी दिशा दिखाई। उन्होंने अपने लेखों के माध्यम से आम आदमी को आजादी के आंदोलन में भाग लेने के लिए प्रेरित तथा प्रोत्साहित किया। उनके लेखों को पढ़कर रासबिहारी बोस तथा अरविंद घोष जैसे मनस्वी भी प्रभावित हुए। उनके आग्रह पर पराड़कर जी सक्रिय राजनीति की ओर उन्मुख हुए।
सन् 1920 ई. में पराड़कर जी ने बनारस आकर 'आज' के सम्पादक का गुरुतर दायित्व संभाला। इस दायित्व का निर्वहन वे यावज्जीवन - 12 जनवरी 1955 ई. को मृत्यु तक - करते रहे। बीच में कुछ समय के लिए उन्होंने काशी से ही प्रकाशित 'कमला' और 'दैनिक संसार' का भी सम्पादन किया। 'नमक सत्याग्रह' के दिनों में जब अंग्रेजी हुकूमत ने 'आज' को प्रतिबंधित कर दिया, तब पराड़कर जी ने 'रणभेरी' नामक एक गुप्त पत्रिका का सम्पादन और प्रकाशन कर उसे देशभर में फैले क्रांतिकारियों तक पहुंचाया। सम्पादक के रूप में पराड़कर जी ने जो टिप्पणियां लिखीं, जो आलेख लिखे, उनका ऐतिहासिक महत्व है। उनका गंभीर चिंतन और शब्दों पर उनकी मजबूत पकड़ उनके लिखे गद्य में सर्वत्र देखी जा सकती है। उनके लेखों ने राष्ट्रीयता का स्वर तो बुलंद किया ही, साथ ही हिन्दी भाषा के भंडार को भरने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
'मिस्टर' के लिए श्री और सर्वश्री का प्रयोग सर्वप्रथम उन्होंने ही किया। उन्होंने सुश्री, श्रीमती, नौकरशाही, मुद्रास्फीति, वायुमंडल, राष्ट्र, अन्तर्राष्ट्रीय जैसे अनेक शब्दों से हिंदी को समृद्ध बनाया। अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करने के मामले में भी उन्होंने उदारता बरती, परंतु संस्कृत शब्दों के साथ अरबी-फारसी विशेषणों के प्रयोग को वे अच्छा नहीं मानते थे। उनका मानना था कि 'अनुकरणीय वफादारी' लिखना हिंदी की प्रकृति के अनुकूल नहीं है।
पराड़कर जी के लिए पत्रकारिता हथियार भी थी और ढाल भी थी। जब-जब अंग्रेजों के काले कानून ने कलम की शक्ति छीनने की कुचेष्टा की, तब-तब पूरा का पूरा सम्पादकीय कालम 'काले कानून के विरोध में हम सब मौन हैं', लिखकर सादा छोड़ दिया जाता था। पत्रकारिता के माध्यम से पराड़कर जी ने न केवल अंग्रेजों के विरुद्ध जनमानस में चेतना जगाई, वरन् देश को सामाजिक व सांस्कृतिक दृष्टि से समुन्नत बनाने का भी पुरजोर प्रयास किया। वे व्यापकता, आधुनिक दृष्टि, उदारता और उन्मुक्तता को पत्रकारिता का पर्याय मानते थे।
अत्यंत व्यस्तता के कारण पराड़कर जी ने स्वयं किसी ग्रंथ की रचना नहीं की, लेकिन अनेक पुस्तकों की भूमिकाओं के रूप में उनका सुविचारित चिंतन समाज के सामने आया। उन्होंने देउस्कर जी की पुस्तक 'देशेर कथा' का 'देश की बात' नाम से हिंदी में अनुवाद किया। उन्होंने अपने समय के अनेक रचनाधर्मियों को प्रोत्साहित कर उन्हें आगे बढ़ाया। उन्होंने नये लेखकों की सृजनात्मक क्षमता को पहचाना, परखा और उसे संरक्षण देकर प्रगति-पथ पर अग्रसर किया। निस्संदेह वे सम्पादन कला के कुशल आचार्य थे। पत्रकारिता में पदार्पण करने वाली पीढ़ियां युगों-युगों तक उनसे प्रेरणा प्राप्त कर सकती हैं। अन्त में यही कहूंगा कि -
अंग्रेजों से लड़े उम्रभर, कागज और कलम के योद्धा।
पराड़कर जी को जग कहता, पूज्य पत्रकारिता पुरोधा।।
उनकी सुस्मृति जोश जगाती, अभय भाव भरती अंतस में।
वे प्रेरणापुरुष बन छाये , सदा रहेंगे जनमानस में।।
@ महेश चन्द्र त्रिपाठी
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फतेहपुर, उत्तर प्रदेश
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