बेढब बनारसी अपने युग के सर्वाधिक चर्चित हॅंसोड़ परम्परा के व्यंग्यकार रहे हैं। खेल-खैल में शब्द-बाण संधान करने की कला में वे निष्णात थे। उनकी भाषा में चंचलता ही नहीं, वह चुस्ती और कसाव भी है जहाॅं एक शब्द भी निरर्थक नहीं है। वे हास्य-व्यंग्य के ऐसे लेखक हैं जिनके व्यंग्य-लेख अपनी विशिष्टता के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने हास्य-व्यंग्य की विधा को उस समय अपनाया जब स्वाधीनता आन्दोलन जोरों पर था। राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना से सम्पन्न रचनाओं के दौर में बेढब बनारसी जैसे लेखकों ने ही साहसपूर्वक हिन्दी में हास्य-व्यंग्य की विधा को प्राणवान बनाया। उनके द्वारा प्रतिष्ठापित हॅंसोड़ परम्परा व्यंग्य की पैनी धार से लेकर, जीवन और समाज के गम्भीर संदर्भों से जुड़कर उत्तरोत्तर निखरती चली गई। बेढब जी ने इस विधा में गद्य-पद्य दोनों ही माध्यमों से हिन्दी को अधिकाधिक समृद्ध बनाया और व्यंग्य के अपने खास अंदाज में पाठकों को गुदगुदा-गुदगुदा कर खूब हॅंसाया।
वाराणसी में जन्मे बेढब बनारसी ( 11 नवम्बर, 1895 -- 06 मई, 1968 ) का मूल नाम कृष्णदेव प्रसाद गौड़ था। उच्च शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात उन्होंने अध्यापन कार्य करते हुए इस क्षेत्र में अपनी महत्वपूर्ण पहचान बनाई। शैक्षिक जगत में उन्होंने बड़े-बड़े सम्मानित पदों, समितियों के सदस्य तथा अध्यक्ष के रूप में गुरुतर दायित्वों का निर्वहन किया। इसी दौरान शिक्षाविद की भूमिका के साथ-साथ उनका विनोदी रचनाकार भी सक्रिय रूप में सामने आया। आप भी आनन्द लीजिए उनके एक मुक्तक का-
" हॅंसी आती न कभी उनके मुख सलोने पर,
तरह आयी न कभी उनको मेरे रोने पर।
इसी को कहते हैं, होता दुख में सुख बेढब,
लिपट के रोने लगीं मुझसे फेल होने पर।"
कविता के क्षेत्र में बेढब जी का पदार्पण उर्दू की हास्य पद्धति के साथ हुआ। उन्होंने युवा मन की अल्हड़ता की मस्ती को अपनी कविता का विषय बनाकर अकबर इलाहाबादी के मार्ग पर चलने की चेष्टा की। उनकी कविताओं में प्रेम और रोमांस के साथ-साथ आधुनिक जीवन के विविध सन्दर्भों और समस्याओं की जीवन्त और सरस झाॅंकियाॅं मिलती हैं। आप सभी के अवलोकनार्थ एक झाॅंकी प्रस्तुत है-
" एक दिन मुझसे मेरा हज्जाम यों कहने लगा,
आप सब बातों में मेरी कहते हैं क्यों 'हाॅं' सदा?
मैंने उससे कहा दिया, आसान है इसका जवाब,
है मेरी कमजोर गरदन पर तुम्हारा उस्तरा।"
बेढब जी की यह जीवन्तता और सरसता जीवन के गहरे सरोकार या दायित्व-बोध से नहीं जुड़ती, उसका उद्देश्य सीमित है। हलका और उन्मुक्त करने वाली इन मनोविनोदी रचनाओं की आत्मा में राजनीति और समाज की विसंगतियों की पहचान जरूर है, मगर वे इनके बोझ से बोझिल नहीं हैं। इसीलिए इनकी कविता में हैं हास्य के छींटे और व्यंग्य की फुहार। ऐसा प्रतीत होता है जैसे पीड़ित, शोषित, विपन्न और उदास भारत में उन्होंने हॅंसने-हॅंसाने का बीड़ा उठा रखा हो। लीजिए आप भी हॅंसिए-
" प्लेटों पै प्लेट आई उड़ाते चले गए,
हम पाॅंव दो रहे थे, वह खाते चले गए।
हम दिल का दर्द उनको सुनाते चले गए,
वह प्रेमियों के नाम गिनाते चले गए।
बरसात की दावत में उठे लोग खा के जब,
देखा कि कितने जूते औ' छाते चले गए।
उसने कहा कि मुझ पै भी हो जाए एक नजर
हॅंस के मुझे अंगूठा दिखाते चले गए ।
हैं देखने में हल्के तो वह फूल की तरह,
पर हमको हर तरह से दबाते चले गए।
बेढब उन्हें न कम किसी लीडर से आंकिए,
आए यहाॅं व बात बनाते चले गए ।"
धीरे-धीरे बेढब बनारसी की रचनाओं में समाज के दर्द और विसंगतियों के दर्शन को जगह मिलनी शुरू हुई। और, तब उन्होंने लिखा-
" ग्रेजुएट को छोड़ कोई चीज है सस्ती नहीं,
फिल्म स्टारों से बढ़कर है कोई हस्ती नहीं।
जिस जगह नेता का घर हो वह गली आबाद है,
उस जगह को छोड़कर देश में कोई बस्ती नहीं।"
बेढब बनारसी के हास्य की आत्मा व्यंग्य है। वह किसी विदूषक का हास्य न होकर पढ़े-लिखे कवि द्वारा रचित 'बनारसी होली की ठिठोली' जैसा स्वाद देता है। हॅंसने-हॅंसाने की धुन में कवि फूहड़ स्थितियों तक नहीं पहुॅंचता। वह जीवन के निरन्तर बदलते परिवेश को समेटते हुए पाठकों को मनोविनोद की सरस सामग्री परोसता है। यथा-
" बापजाॅं तो साग खाकर मर गए,
पर हमारे वास्ते कुछ धर गए ।
मूॅंछ मुड़वाकर पहनकर सूट-बूट,
नाम हम भी मिस्टरों में कर गए।"
बेढब जी की कविताओं में विनोद का विशेष उभार ही पाठक को हास्य के निकट ले जाता है। उनके हास्य-व्यंग्य के आलम्बन कृत्रिमता से नहीं गढ़े गए हैं, प्रत्युत आसपास के परिवेश से उठाए गए हैं। हम सब जिन चीजों से परिचित हैं, वे भी उनकी रचनाओं में उतरकर नए कलेवर में सामने आती हैं। हास्य-व्यंग्य के कई अछूते क्षेत्रों का अनुभवजन्य उद्घाटन करती हैं उनकी कविताएं। अवलोकनीय है उनका यह अनूठा मुक्तक--
" कहा अनुभव किसी मिस्टर दवे ने,
जिधर देखो उधर पड़ते हैं देने ।
हवा बिगड़ी जमाने की कुछ ऐसी,
कि प्रियतम भी लगे हैं घूस लेने ।।"
बेढब बनारसी की कलम की धार उस समय पैनी हुई, जब राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक क्षेत्र में ऊहापोह की स्थिति थी। द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् परिवर्तित जीवन मूल्य और आदर्श प्रश्नचिह्न बनकर सामने खड़े थे। मध्यमवर्गीय जीवन द्वंद्व, अन्तर्विरोधों और विसंगतियों से घिर गया था। ऐसे समय में उनकी जो काव्य-कृतियाॅं प्रकाशित हुईं, वे हैं- 'बेढब की बहक', 'काव्य कमल', 'बिजली', 'बेढब की वाणी' और 'नया जमाना'। प्रस्तुत है बेढब की विलक्षण वाणी से नि:सृत एक मुक्तक-
" कठोर तम से पड़ा ज़िन्दगी में पाला है,
यह ढंग कौन-सा तूने प्रिये निकाला है।
जो दिल को चूर किया, खैर कोई बात नहीं,
नया गिलास भी शीशे का तोड़ डाला है।"
बेढब जी कविता ( पद्य ) ही नहीं, गद्य के भी महारथी थे। उन्होंने कहानी, उपन्यास, निबन्ध आदि साहित्य की अनेक विधाओं में मूल्यवान सृष्टि की है। उनके द्वारा लिखित प्रसिद्ध कहानी संग्रहों के नाम हैं- 'बनारसी एक्का', 'मसूरी वाली', 'गाॅंधी का भूत', 'जब मैं मर गया'। 'लेफ्टीनेण्ट पिगसन की डायरी' उनका चर्चित उपन्यास है। उनके निबन्ध संग्रहों में 'हुक्का पानी', 'उपहार' के नाम गिनाए जा सकते हैं। उन्होंने 'हिन्दी साहित्य की रूपरेखा' ओर 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' नामक पुस्तकें भी लिखीं। इसके अतिरिक्त उनकी उर्दू के काव्य को हिन्दी में उपलब्ध कराने वाली 'गालिब की कविता', 'रूहे सुखन' पुस्तकें भी प्रकाशित हुईं।
" जो दूसरों को हॅंसाता है, वह स्वर्ग लोक जाता है," जैमिनि ऋषि के इसी बोधवाक्य को आत्मसात कर बेढब बनारसी ने यावज्जीवन साहित्य साधना की। उनकी विनोदमय शैली का विशेष गुण यह है कि उसमें सर्वत्र कहानी का-सा रस आता है, क्योंकि उनका हास्य-व्यंग्य स्थितियों से नहीं, संवादों से उपजता है। उनकी वैदग्ध्यपूर्ण उक्तियाॅं पाठकों को अन्तर्मन्थन के लिए विवश करती हैं। उनके साहित्य में मनुष्य की विरोधी मानसिकता उचक-उचक कर झांकती दिखाई देती है। उनकी कहानियां मनुष्य की विरोधाभासी मनोवृत्ति को हॅंसी-हॅंसी में उजागर करती चलती हैं।
यद्यपि व्यंग्य को अमान्य स्थिति का वैचारिक विरोध माना गया, तथापि बेढब जी के हास्य-व्यंग्य में विरोध का स्वर मुखर नहीं है। कहा जाता है कि 'कोई मीठे से मर जाए तो माहुर की क्या जरूरत है?' इसी आधार पर वे विरोध की मुद्रा नहीं अपनाते। वे हॅंसी-हॅंसी में हौले-हौले व्यंग्य की चुटकी लेते हुए मनुष्य के अन्तर्मन की जटिलताओं तथा युग, समाज, धर्म की विसंगतियों की झलक दिखला देते हैं। उनकी शैली का एक नमूना दृष्टव्य है-
“ छुट्टी शब्द में बड़ा ही आकर्षण है। स्वराज्य में, यौवन में, लाॅटरी की विजय में, क्रासवर्ड की पहेली के प्रथम पुरस्कार में जो आनन्द है, वही छुट्टी में है। इस आनन्द का अनुभव सब लोग नहीं कर पाते। .... काव्य का रस ब्रह्मानन्द का सहोदर है, भोजन का रस ब्रह्मानन्द का भतीजा और छुट्टी का रस ब्रह्मानन्द का पोष्य-पुत्र है।”
बेबस बनारसी काशी के बेढब सम्पादक के रूप में भी चर्चित हुए। उन्होंने 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका', 'आंधी', 'प्रसाद', 'खुदा की राह पर', 'तरंग', 'बेढब' और 'करेला' जैसी पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया। पत्रकारिता में बेढब जी का बनारसी अंदाज और चुभती-चुटीली तथा असरदार टिप्पणियाॅं काफी लोकप्रिय हुईं। हिन्दी के हास्य-व्यंग्य की चर्चा बेढब जी की बनारसी हॅंसी-ठिठोली की चर्चा के बिना हमेशा अधूरी मानी जाएगी।
और, अन्त में, काशीवासी कामायनीकार जयशंकर प्रसाद के प्रसिद्ध गीत 'बीती विभावरी जाग री' पर आधृत बेढब जी की सुख्यात पैरोडी प्रस्तुत कर मैं पाठकों से विदा लेता हूॅं--
" बीती विभावरी जाग री।
छप्पर पर बैठे काॅंव-काॅंव
करते हैं कितने काग री।।
तू लम्बी ताने सोती है
बिटिया 'माॅं-माॅं' कह रोती है
रो-रोकर गिरा दिए उसने
आंसू अब तक दो गागरी।
बीती विभावरी जाग री।।
बिजली का भोंपू बोल रहा
धोबी गदहे को खोल रहा
इतना दिन चढ़ आया लेकिन
तूने न जलाईं आग री ।
बीती विभावरी जाग री।।
उठ जल्दी दे जलपान मुझे
दो बीड़े दे दे पान मुझे
तू अब तक सोयी है आली
जाना है मुझे प्रयाग री।
बीती विभावरी जाग री।
@ महेश चन्द्र त्रिपाठी