इत्र वाला नशा
सन् सत्तर का जमाना था……ऊंची पैंट पहन आँखो पे गॉगल लगा गली में इतराना था । कोई अपुन को टोक दे ! ऐसा बस फ़साना था ।हीरो नहीं ,पर हीरो वाला रुबाब दिखा लड़कियों पे इंप्रेशन जमाना था ।अपुन का नाम बोले तो लियाक़त अली हरफ़नमौला शख़्सियतवाला बंदा । प्यार से लोग मुझे अली कहते है । विरासत में दो ही चीजें मिली-एक दर्ज़ी की दुकान , दूसरी अब्बा जैसी सूंघने की कला ।जो किसी भी महक को दूर से ही सूँघ के बता देता था कि किस की ख़ुशबू है । इस कला की बदोलत मैं अपने दोस्तों से कई बार शर्त भीजीत चुका था।
घर की कहूँ तो एक आपा और बूढ़ी अम्मी जो किसी फिल्म के किरदारों से अलग नही थी।लेकिन अब्बा जाते-जाते एक अच्छा काम करगए । अपनी टेलर की दुकान शहर के बीचो-बीच बना हम सबके वारे-न्यारे कर गए।आज भी अब्बा का नाम और दुकान दोनों आसमाँ छूरही हैं । कपड़े सिलवाने वालों का ताँता लगा रहता हैं ।लेकिन आज भी एक बात से मन बहुत दुखी हो जाता है ।मेरी दुकान के साइड परबीड़ी-सिगरेट का खोका है । जिसमें इतनी सिगरेट सुलगती है …… ”मानो शहर को ये हुआ क्या है ? हर जगह धुँआ ही धुँआ सा है ”ऑक्सिजन की जगह सब धुँआ अंदर ले रहे है और अपने फेफड़ों में जहर घोल रहे है।
तभी बाज़ार में शोर मचा आपके शहर में विदेशी परफ़्यूम की दुकान खुलने जा रही है । चारों ओर बड़े-बड़े होल्डिंग लग रहे थे ।लाउडस्पीकर से हर गली में इसका ही प्रचार हो रहा था।आख़िरकार वो दिन आ ही गया जब इत्र की दुकान खुली और किसी बड़ी हस्तीने उसमें शिरकत की । लेकिन हम ”बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद ”इतने चोचलों की आदत नही थी। खैर इसके खुलने से बाज़ार मेंख़ुशबू की बौछार हो गयी । कभी यें तो कभी वो खुशबू । लेकिन उस दुकान में घुसने की हमारी औक़ात नही थी । बस बाहर से ही खुशबूका एहसास कर लेते थे।शाम को जब भी मैं इत्र वाली दुकान के पास से गुजरता तो एक खुशबू हमेशा मेरे कदम रोक देती और मन में नाजाने कितने अनगिनत सवाल छोड़ देती । एक दिन मेरे दोस्तों ने शर्त लगाई बताओ….. यें कौन से इत्र की महक है ?? ऐसा पहली बारहुआ कि मैं मौन रहा …. थोड़ा सा कन्फ़्यूज़ दिखा ये कौन सी महक है ?? जो मैं बता नही पाया…..??
वक्त गुजरता रहा पर दिमाग में उस महक का फ़ितूर चढ़ने लगा । मैं पता तो लगा के रहूँगा।आखिर यें कौन सी महक है , जिसे मैंपहचान नहीं पाया । इसलिए मैंने एक दिन रामू काका को धरदबोचा । जो पेशे से अमीर-तरीन साहब के ड्राइवर थे ।
अली -काका मुझे एक दिन के लिए इस दुकान के अंदर जाने दो ….
काका-मैं ही नही गया…. तो तू कैसे जा सकता है ? अली ज़्यादा इसरार करने लगा ।
काका- ठीक है ! पर क्या तुझे कार अच्छे से चलानी आती है ।
अली - आती तो है और आप किस मर्ज़ की दवा है ।तनिक हमपे भी रहम कर दो
बहुत कठिनाई हुई इस लोहा गाड़ी को अच्छे से सीखने में । काका इससे सरल तो घोड़ा गाड़ी है । दो चाबुक लगो ! और मंज़िल पा जाओं ।
काका-तो फिर वोहि ले जाओ।पार्किंग तो रिज़र्व होगी ही …..
अली -अरे काका ! ग़ुस्सा काहे करते हो ? हम तो मजाक कर रहे है ।
काका - साहब के सामनें थोड़ा कम बोलना वरना तुम्हारे चक्कर में कहीं मेरी नौकरी ना चली जाए ।
ठीक है काका ! बोल अली को कुछ दिनों बाद इत्र वाली दुकान पर जाने का मौका मिला।वर्दी पहने सर पे टोपी लगाए गाड़ी के शीशे मेंनिहार ही रहे थे कि इतने में साहब आए और बोले-तो तुम रामू की जगह आए हो !
अली - जी सरकार ! दरवाज़ा बंद करते हुए……..
साहब - तुम्हें पता है कहाँ जाना है ? …..जी साहब !
जैसे ही हम वहाँ पहुँचें तो साहब ने कहा - “ तुम यहीं रुको ! यें सुन ऐसा लगा मानो किसी ने गुब्बारे में पिन चुभा
सारी हवा निकाल दी है । बहुत सोचा….. अगर आज भी अंदर ना जा पाया तो लानत है। बहुत देर खड़े खड़े मच्छर-मक्खी से जंग लड़ीपर फिर भी जीत ना मिली । थोड़ी देर बाद छुपते-छुपाते खिड़की पे लटक अंदर झाँकना चाहा तो अगले ही पल मुँह की खानी पड़ी ।थोड़ी देर बाद खुद को सम्भालते हुए ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे “लौट के बुद्धु घर को आए “ । तभी साहब भी बाहर आए और कहा-चलो ! मन में उदासी से भरा कटोरा लिए उस भीनी-भीनी महक को वही दरवाज़े पे छोड़ घर के लिए निकल पड़े ।
अली - साहब ये ख़ुशबू कैसी है ? क्या आपने कोई परफ्यूम ली है……मुझे ये ख़ुशबू बहुत पसंद है।
साहब-आँखे टेरते हुए …… लड़खड़ाती ज़बान से बोले - तुम बोलते बहुत हो !
ये सुन ! मैं चुप हो गया । उन्हें घर छोड़ गाड़ी से अपना सामान लेने लगा । तभी मेरी नज़र एक छोटी सी बोतल पे पड़ी जो साहब गलतीसे छोड़ गए थे । मैंने जैसे ही उस बोतल को उठाया तो वोही ख़ुशबू सूंघ मैं खुद को रोक नही पाया ।माना कि किसी की चीज को बिनापूछे ऐसे छूना गलत हैं । पर इसके चक्कर में खुद को जो ख्वार किया था । अब तो बोतल खोल के ही रहूँगा…और जैसे ही मैंने उसेखोला तो वो परफ़्यूम नहीं बल्कि एक सफेद रंग का नमक जैसा पॉउडर था और जैसें ही मैंने उसे सूँघा ….तो ऐसा लगा मानो मैं जन्नत मेंघूम रहा हूँ । उस बोतल को वहीं छोड़ फिर मैं उड़नखटोले पे उड़ लिया……
सब कुछ नया-नया सा लगने लगा । गुज़रा था जिन गलियों से ना जाने कितनी दफ़ा आज वो गली भी अनजानी सी लगने लगी। मेरीबकरी रजिया भी आज मुझे फ़िल्म की रानी लगी। यूँ ही रात भर उलझा रहा ख़्वाब -हकीकत के बीच रूलता रहा ।
सुबह जब आँख खुली तो खुद को अस्पताल में पाया । सर में दर्द आँखो में सुरूर छाया था ….. मैं कहाँ हूँ बोल सबको हैरत में डालदिया। तभी एक चमाटा कान पे आया …उठ नशा करता है।ये सुन ! झँपाक से खड़ा हो गया ।नशा ! नहीं अम्मी , आप की क़सम मैंने तोसिर्फ़ इत्र को सूंघने की चाह की थी । तू और तेरा इत्र रुक जा नासपिटे….फिर जो हुआ वो मत पूछो…।
बाद में पता चला कि वो इत्र की नही बल्कि ड्रग की बोतल थी। इत्र की दुकान की आड़ में ड्रग का कारोबार होता है । सुना है बड़े घर केलोग और फ़िल्मी हस्तियाँ इनका सेवन शौकिया तौर पे करते है।इतने दिन से जिसके पीछे भागा वो इत्र की ख़ुशबू नही एक नशा था जोआज की पीढ़ी की सोच -समझ को नष्ट करता जा रहा हैं।हम सब जानते है फिर भी ख़ामोश है…कहते है शराब,सिगरेट,गुटका,अफीमसब स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है । लेकिन फिर भी हर कोने में इनकी एक पहचान है । इतनी पाबंदियों के बाद भी यें जहर क्योंबिकता सरेआम है?????
स्नेह ज्योति
कभी आंसमा में ढूँढता हैं कभी सपनों में खोजता हैं यें दिल हर पल ना जाने क्या-क्या सोचता है भीड़ मे तन्हाई में अपने को ही खोजता हैं
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