एक दिवस नटखट बिल्ली ने
पहनी चुनरी - चोली।
जा पहुॅंची फिर नदी किनारे
नाविक से यों बोली-
मुझे नदी के पार ले चलो,
दूॅंगी मैं उतराई ।
अब न किसी को दुख दूॅंगी मैं,
मैंने कसम उठाई।।
नदी पार के जंगल में मैं
कंदमूल खाऊॅंगी।
वहीं रहूॅंगी तपस्विनी बन
लौट न घर आऊॅंगी।।
चूहों से दोस्ती करूॅंगी,
उनके साथ रहूॅंगी।
उनके सुख में सुख मानूॅंगी,
दुख में मदद करूॅंगी।।
बदला रूप देख बिल्ली का
नाविक था चकराया।
ले उतराई उसने उसको
नदी पार पहुॅंचाया।।
पार पहुॅंचकर बिल्ली ने था
सब चूहों को साॅंटा।
अपनी चतुराई से उनको
जाति - पंथ में बाॅंटा।।
जब चूहों में रहा न एका,
बिल्ली की बन आई।
उसने उनके हर कुटुम्ब को
क्षति अकूत पहुॅंचाई।।
चूहों जैसी प्रजा देश की,
बिल्ली जैसे नेता।
हानि प्रजा को पहुॅंचाते हैं
बनकर हृदय - विजेता।।
@ महेश चन्द्र त्रिपाठी
R 115 खुशवक्त राय नगर
फतेहपुर - 212601
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