भारत हमेशा से विविधताओं से भरा देश रहा है। यहां की विभिन्न संस्कृतियां, खान-पान, भाषाएं और परिधान विश्व को आकर्षित करती रही हैं। भारत में कई धर्मों, एवं सम्प्रदायों का जन्म हुआ, जो आज विभिन्न देशों में फैले हुए हैं। कुछ विचारधाराएं बाहर से भी आईं, जिनको पूरे सम्मान से अपनाया गया, और वे सब आज देश की संस्कृति में अपना योगदान दे रहीं हैं।
ऐसा ही एक धर्म या समुदाय है पारसी समुदाय, जिसका जन्म भले ही भारत में ना हुआ हो, लेकिन आज भारत की प्रगति में अपना मूल्यवान सहयोग दे रहा है। भारत के तमाम बड़े व्यापारों, और उद्योगों में से अधिकतर उद्योग पारसियों द्वारा ही खड़े किये गए हैं। हम सभी टाटा ग्रुप के रतन टाटा, गोदरेज ग्रुप के आदि गोदरेज एवं प्रख्यात वैज्ञानिक होमी जहांगीर भाभा को जानते हैं। ये सभी पारसी धर्म में जन्मे व्यक्तित्व हैं।
पारसी धर्म का जन्म भारत में नहीं हुआ था, परन्तु आज भारत की संस्कृति की छाप पारसी रीति-रिवाज़ों में भी देखी जा सकती है। पारसी धर्म की जन्मभूमि कहाँ है? और भारत में कैसे पारसियों का आगमन हुआ, जानेंगे इस लेख में।
पारसी धर्म का जन्म :-
पारसी धर्म का जन्म भारत में नहीं, बल्कि आज के ईरान देश में हुआ था।पारसी धर्म का मूल नाम जरथुस्त्री धर्म है। यह विश्व के सर्वाधिक प्राचीन धर्मों में से एक है, जिसकी स्थापना फारस देश ( अब ईरान ) के एक संत ज़रथुस्त्र के द्वारा की गयी थी। पारसी धर्म और सनातन वैदिक धर्म में बहुत सी समानताएं देखने को मिलती हैं। इसका कारण यह है कि संत ज़रथुस्त्र को भी आर्य परम्परा का संत माना जाता है। माना जाता है कि संत ज़रथुस्त्र ने पारसी धर्म की स्थापना 1700-1600 ईसा पूर्व के आसपास की थी। उन्हें कई ऋग्वेद कालीन ऋषियों के समकालीन माना जाता है। ईरान का प्राचीन नाम पारस देश था, इस कारण भारत में ज़रथुस्त्री धर्म के अनुयायियों को पारसी कहा जाता है। पारसी धर्म के शुरूआती इतिहास के बारे में कहीं से ज्यादा कुछ प्रमाण नहीं मिलते हैं। पारसियों के इतिहास का प्रमुख स्रोत एक गुजराती-पारसी व्यक्ति द्वारा काव्यात्मक शैली में लिखी गई किताब "किस्सा-ऐ-संजान" है।
पारसियों की मान्यताएं :-
पारसी धर्म अन्य सभी सम्प्रदायों जैसे ही, केवल एक ईश्वर को मानता है। पारसी मतानुयायी एक ईश्वर, "अहूर माज़दा" की पूजा करते हैं। पारसी, हिन्दुओं की तरह ही देवताओं में विश्वास रखते हैं, लेकिन वे सभी "अहूर माज़दा" को सर्वोच्च मानते हैं। पारसियों का प्रमुख ग्रन्थ ज़ेंद आवेस्ता है, जिसकी भाषा शैली वेदों से बहुत हद तक मिलती-जुलती ही है। दरअसल ये भाषा संस्कृत की ही एक शाखा से निकली है, जिसे आवेस्ता कहा जाता है। पारसियों को "अग्नि पूजक" भी कहा जाता है। पारसी धर्म में अग्नि को पवित्र माना गया है, और प्रतिदिन अग्नि की ही पूजा की जाती है।
पारसियों के अंतिम संस्कार का तरीका अन्य सभी धर्मों से बहुत ही भिन्न है। ना तो इन्हें जलाया जाता है और ना ही दफनाया जाता है। पारसियों की मृत्यु के बाद, उनके शव को ऊँची मीनार पर खुला छोड़ दिया जाता है, जहां पर गिद्ध उस शव के मांस को खा लेते हैं। बाकी बची अस्थियों को बाद में इकट्ठा करके दफना दिया जाता है। कुछ वर्षों में इस परम्परा में कमी आई है, और लोग अब सीधे शव को दफनाने लगे हैं।
कैसे हुआ पारसियों का भारत आगमन?
1500 ईसा पूर्व के लगभग स्थापित पारसी धर्म ईसा के जन्म के 500-600 वर्ष तक शांतिपूर्वक फारस/पर्शिया (ईरान) में फलता-फूलता रहा। जब इस्लाम धर्म की स्थापना हुई, तब उसे पूरे विश्व में फैलाने का उद्देश्य लेकर, इस्लाम को मानने वालों ने शास्त्रों के बल पर अन्य धर्मों के लोगों का मतांतरण करवाना शुरू कर दिया। सातवीं सदी तक फारस में इस्लाम का प्रभुत्व बढ़ने लगा, और पारसियों को ज़बरदस्ती इस्लाम कबूल करवाया जाने लगा। जो लोग इस्लाम नहीं अपनाते थे, उनको प्रताड़ित किया जाता था। इसका परिणाम यह हुआ, कि आधी से ज्यादा पारसी आबादी ने इस्लाम अपना लिया। जो लोग अपने धर्म के प्रति और अपनी आस्थाओं के प्रति अडिग थे, उन्होंने इस जबरन मतान्तरण का विरोध किया। लेकिन अंत में जब वे भी परेशान हो गए, तो उन्होंने फारस देश छोड़ने का फैसला लिया।
सातवीं सदी के आखिर तक बहुत से ज़रथुस्त्री दुनिया के अलग-अलग कोनों में फ़ैल गए। ज़रथुस्त्रियों का एक जत्था गुजरात के एक कसबे संजान पहुंचा। यहां कुछ समय तक रहने के बाद ये लोग काठियावाड़ आ गए। दसवीं सदी तक, पारसियों के जत्थे भारत पहुँचते रहे। गुजरात में उस वक्त ज़दी राणा नाम के राजा का शासन था, जिसके दरबार में पारसियों ने काठियावाड़ में शरण लेने की अनुमति मांगी। राजा ने तीन शर्तों के साथ पारसियों को शरण देने को मंज़ूरी दे दी। ये शर्तें थी -
आज भारत में 70,000 से ज़्यादा पारसी रहते हैं, और यहां की संस्कृति में पूरी तरह रच-बस गए हैं।
पारसियों की विशेषता :-
पारसियों की आबादी देश में सबसे कम है, बावजूद इसके, आज पारसियों में साक्षरता दर सबसे ज़्यादा है। पारसी परिवारों की प्रति व्यक्ति आय सबसे उन्नत है। देश के विकास में भी पारसियों का महत्वपूर्ण योगदान है। आज भारत की कई अग्रणीय कंपनियां पारसी परिवारों द्वारा स्थापित हैं। देश की प्रमुख कंपनियों में से एक टाटा ग्रुप के संस्थापक, जमशेदजी टाटा को भारतीय उद्यम का पितामह कहा जाता है। भारत में पहली स्टील कंपनी की स्थापना जमशेदजी टाटा ने ही की थी। जेआरडी टाटा ने पहली भारतीय विमान सेवा, टाटा एयरलाइन्स की स्थापना की थी, जिसे आज एयर इंडिया के नाम से जाना जाता है। टाटा ग्रुप के वर्तमान मालिक, रतन टाटा देश के अग्रणी उद्योगपतियों में से एक हैं।
पहली भारतीय बोलती फिल्म आलमआरा के निर्देशक अर्देशिर ईरानी भी एक पारसी थे। भारत में परमाणु तकनीक को लाने वाले परमाणु वैज्ञानिक होमी जहांगीर भाभा भी पारसी थे। पारसियों ने शिक्षा, राजनीति और उद्योग के क्षेत्र में अपना काफी योगदान दिया है। भारत-पकिस्तान युद्ध में प्रमुख दायित्व निभाने वाले सैम मानेकशॉ से लेकर होमी जहांगीर भाभा तक, और अर्देशिर ईरानी, बमन ईरानी जैसी फिल्म हस्तियों से लेकर गोदरेज और टाटा जैसे बड़े उद्योगपति समूहों तक, पारसियों के योगदान की ये सूची बहुत लम्बी है।
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