पद्मविभूषण पाण्डुरंग शास्त्री आठवले : व्यक्तित्व एवं कृतित्व

जन्मदिवस पर सश्रद्ध स्मरण

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19 Oct '24
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               पाण्डुरंग शास्त्री आठवले की गणना भारत के महान दार्शनिकों, आध्यात्मिक गुरुओं, समाज सुधारकों तथा तत्वचिंतकों की अग्रिम पंक्ति में की जाती है। उन्हें सम्पूर्ण महाराष्ट्र में प्रायः दादाजी के नाम से जाना जाता है। उन्होंने 1954 में 'स्वाध्याय कार्य' की शुरुआत की और धीरे-धीरे इसे एक पारिवारिक संगठन के रूप में विकसित किया, सुगठित किया। स्वाध्याय कार्य श्रीमद्भगवद्गीता पर आधारित आत्मज्ञान का कार्य है और यह भारत के एक लाख से अधिक गांवों में फैला हुआ है। वर्तमान में इस संगठन से जुड़े सदस्यों की संख्या लाखों में है। दादाजी श्रीमद्भगवद्गीता, उपनिषदों, पुराणों, स्मृतियों आदि पर अपने प्रभावी प्रवचनों के लिए प्रसिद्ध हैं।

                  19 अक्टूबर 1920 को महानगरीय जन-कोलाहल से दूर महाराष्ट्र के रोहा नामक गांव में जन्मे पाण्डुरंग शास्त्री आठवले जी को अपनी जन्मभूमि से विशेष प्रेम था। रोहा गांव के सुरम्य प्राकृतिक परिवेश का उल्लेख करते हुए डाॅ. पद्माकर जोशी ने अपनी अनूदित कृति 'देह बन गई चंदन' में लिखा है, “रोहा गांव की ओर कहीं से भी देखने पर वह गांव लुभावना प्रतीत होता है। उस गांव को प्राकृतिक सौंदर्य का उपहार प्राप्त हुआ है। गांव में प्रवेश करते ही पग-पग पर इस सौंदर्य के दर्शन होते हैं। अनजान व्यक्ति को तो प्रथम दृष्टि में ही गांव का वह मनमोहक रूप मोहित करता है। रोहा गांव में प्रवेश करते समय ही कुण्डलिका नदी हर एक का स्वागत करती है।”

                   पाण्डुरंग शास्त्री और उनके परम मित्र पाध्येजी जब रोहा में साथ-साथ पढ़ रहे थे, एक शाम दोनों गांव के बाहर घूमने गए। घर लौटते समय जब वे पत्थर के पुल पर पहुंचे, पाण्डुरंग ने हंसकर कहा, "पाध्ये, तुम इस पुल से नदी में छलांग लगा सकते हो?" पाध्येजी बोले, "इसमें कौन बड़ी बात है? बिलकुल लगा सकता हूं। लेकिन, तुम लगा सकते हो?" इस पर पाण्डुरंग ने झट से कपड़े उतार कर पुल से नदी में सीधी छलांग लगा दी। यह देखकर पाध्येजी का दिल धड़कने लगा। उन्होंने सोचा न था कि पाण्डुरंग ऐसा साहस कर सकते हैं। अब तो उन्हें भी छलांग लगानी पड़ेगी, यह सोचकर उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई क्योंकि उन्हें तैरना आता नहीं था। अतः उन्होंने भाग लेने में भलाई समझी और अपने साथ पाण्डुरंग के कपड़े समेट ले गए।

                  पाण्डुरंग शास्त्री आठवले जी के जन्मदिन को महाराष्ट्र में 'मनुष्य गौरव दिवस' के रूप में मनाया जाता है। उन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा के साथ ही सरस्वती संस्कृत विद्यालय में संस्कृत व्याकरण, न्याय, वेदान्त, साहित्य का अध्ययन किया। उन्होंने मराठी, हिन्दी, संस्कृत के साथ अंग्रेजी साहित्य में भी प्रवीणता प्राप्त की। उन्हें रायल एशियाटिक सोसायटी मुम्बई द्वारा मानद सदस्य मनोनीत कर सम्मानित किया गया। उन्होंने इस सोसायटी के विशाल पुस्तकालय में - उपन्यास खण्ड को छोड़कर - सभी विषयों के प्रमुख लेखकों की पुस्तकों का अध्ययन किया। वेदों, पुराणों, उपनिषदों, स्मृतियों आदि पर चिन्तन करते हुए अपनी मौलिक निष्पत्तियां दीं। उन्होंने मानव समाज को 'अखण्ड वैदिक धर्म', 'जीवन जीने का तरीका', 'पूजा का तरीका' और 'पवित्र मन से सोचने का तरीका' दिया।

                     भगवान कृष्ण के परम भक्त पाण्डुरंग शास्त्री अपने इष्ट की आलोचना नहीं सुन सकते थे। एक बार जापान में आयोजित धर्मसभा में किसी विदेशी द्वारा कृष्ण की आलोचना किए जाने पर वे उत्तेजित हो गए थे और आलोचक को मुंहतोड़ जवाब देते हुए कहा था, "श्रीकृष्ण का जीवन और तत्व-प्रणाली सिर्फ उनके काल तक ही सीमित नहीं थी। अन्यथा वर्तमान में उनकी भक्ति कोई नहीं करता। उनके बाद अब पांच हजार वर्ष पूरे हो गए हैं। फिर भी समूचे भारतवर्ष और संसार भर में भी श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का उत्सव अब भी अत्यन्त उत्साह के साथ मनाया जाता है। अब भी यही धारणा है कि श्रीकृष्ण अब भी उनका मार्गदर्शन कर रहे हैं। ...... आज भी कृष्णभक्त उनके प्रति अपनी भावनाओं को इस प्रकार व्यक्त करते हैं -

"वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूर मर्दनम् ।

  देवकी परमानन्दं कृष्णं वंदे जगद्गुरुम् ।।"

                   प्रख्यात प्रवचनकार पाण्डुरंग शास्त्री परम वैष्णव धर्मानुयायी थे। एकादशी का यथार्थ अर्थ समझाते हुए वे कहा करते थे कि एकादशी के दिन मुख के बदले पैर सक्रिय होने चाहिए। जीभ चलने की अपेक्षा पैरों को चलना चाहिए।

                    पाण्डुरंग शास्त्री को 1997 में धर्म के क्षेत्र में उन्नति के लिए टेम्पलटन पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1999 में उन्हें सामुदायिक नेतृत्व के लिए मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया और इसी वर्ष भारत सरकार ने उन्हें 'पद्मविभूषण' से अलंकृत किया।

                     स्वाध्याय कार्य का महामेरु निर्मित कर स्वाध्याय योगी प. पू. पाण्डुरंग शास्त्री आठवले जी ने 25 अक्टूबर 2003 को इस नश्वर संसार से विदा ली। वह दिन दीपावली के लक्ष्मीपूजन की अमावस्या का दिन था। इसी पावन-पवित्र दिन महानिर्वाण करने की महापुरुषों की परम्परा उन्होंने बनाए रखी। भगवान कृष्ण ने भी इसी दिन देहत्याग किया था। इसी दिन नचिकेता की यमराज के साथ भेंट हुई थी और भगवान महावीर, स्वामी रामानन्द तीर्थ, भारतरत्न विनोबा भावे जैसी अनेक विभूतियों ने इसी दिन को अपने महाप्रयाण के लिए चुना था। पाण्डुरंग शास्त्री आठवले जी का सम्पूर्ण जीवन मानव-कल्याण के लिए समर्पित था। उनके जीवनादर्शों से प्रेरित होकर ही कवि आनन्द अनुरागी ने लिखा है -

" जिन्दगी यह मिली चार दिन की हमें 

     प्यार जीवन में सबसे निभाते चलें।

        दर्द को अपना हमदर्द मानें सदा 

         खुद हंसें और सबको हंसाते चलें।।"

 

@ महेश चन्द्र त्रिपाठी 

 

Category:Literature



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Written by Mahesh Chandra Tripathi