*🙏🙏दूसरों का अमंगल चाहने में अपना अमंगल पहले होता है🙏🙏*
🕉️१४.०७.२०२४🕉️
'देवराज इन्द्र तथा देवताओं की प्रार्थना स्वीकार करके महाशैव महर्षि दिधीचि ने देह त्याग किया। उनकी अस्थियाँ लेकर विश्वकर्मा ने वज्र बनाया। उसी वज्र से अजेयप्राय वृत्रासुर को इन्द्र ने मारा और स्वर्ग पर पुनः अधिकार किया।' ये सब बातें अपनी माता सुवर्चा से बालक पिप्पलाद ने सुनीं। अपने पिता दिधीचि के घातक देवताओं पर उन्हें बड़ा क्रोध आया। 'स्वार्थवश ये देवता मेरे तपस्वी पिता से उनकी हड्डियाँ माँगने में भी लज्जित नहीं हुए!' पिप्पलाद ने सभी देवताओं को नष्ट कर देने का संकल्प करके तपस्या प्रारम्भ कर दी।
पवित्र नदी गौतमी के किनारे बैठकर तपस्या करते हुए पिप्पलाद को दीर्घकाल बीत गया। अन्त में भगवान् शंकर प्रसन्न हुए। उन्होंने पिप्पलाद को दर्शन देकर कहा-'बेटा! वर माँगो।'
पिप्पलाद बोले- ‘प्रलयंकर प्रभु ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो अपना तृतीय नेत्र खोलें और स्वार्थी देवताओं को भस्म कर दें।’
भगवान् आशुतोष ने समझाया-'पुत्र! मेरे रुद्ररूप का तेज तुम सहन नहीं कर सकते थे, इसीलिये मैं तुम्हारे सम्मुख सौम्य रूप में प्रकट हुआ। मेरे तृतीय नेत्र के तेज का आह्वान मत करो। उससे सम्पूर्ण विश्व भस्म हो जायगा।'
पिप्पलाद ने कहा-'प्रभो! देवताओं और उनके द्वारा संचालित इस विश्व पर मुझे तनिक भी मोह नहीं। आप देवताओं को भस्म कर दें, भले विश्व भी उनके साथ भस्म हो जाय।'
परमोदार मंगलमय आशुतोष हँसे। उन्होंने कहा- ‘तुम्हें एक अवसर और मिल रहा है। तुम अपने अन्तःकरण में मेरे रुद्ररूप का दर्शन करो।’
पिप्पलाद ने हृदय में कपालमाली, विरूपाक्ष, त्रिलोचन, अहिभूषण भगवान् रुद्र का दर्शन किया। उस ज्वालामय प्रचण्ड स्वरूप के हृदय में प्रादुर्भाव होते ही पिप्पलाद को लगा कि उनका रोम-रोम भस्म हुआ जा रहा है। उनका पूरा शरीर थर-थर काँपने लगा। उन्हें लगा कि वे कुछ ही क्षणों में चेतनाहीन हो जायँगे। आर्तस्वर में उन्होंने फिर भगवान् शंकर को पुकारा। हृदय की प्रचण्ड मूर्ति अदृश्य हो गयी। शशांकशेखर प्रभु मुसकराते सम्मुख खड़े थे।
'मैंने देवताओं को भस्म करने की प्रार्थना की थी, आपने मुझे ही भस्म करना प्रारम्भ किया।' पिप्पलाद उलाहने के स्वर में बोले।
शंकरजी ने स्नेहपूर्वक समझाया-'विनाश किसी एक स्थल से ही प्रारम्भ होकर व्यापक बनता है और सदा वह वहीं से प्रारम्भ होता है, जहाँ उसका आह्वान किया गया हो। तुम्हारे हाथ के देवता इन्द्र हैं, नेत्र के सूर्य, नासिका के अश्विनीकुमार, मन के चन्द्रमा। इसी प्रकार प्रत्येक इन्द्रिय तथा अंग के अधिदेवता हैं। उन अधिदेवताओं को नष्ट करने से शरीर कैसे रहेगा? बेटा! इसे समझो -- “कि दूसरों का अमंगल चाहने पर पहले स्वयं अपना अमंगल होता है।”
तुम्हारे पिता महर्षि दधीचि ने दूसरों के कल्याण के लिये अपनी हड्डियाँ तक दे दीं। उनके त्याग ने उन्हें अमर कर दिया। वे दिव्यधाम में अनन्त काल तक निवास करेंगे। तुम उनके पुत्र हो। तुम्हें अपने पिता के गौरव के अनुरूप सबके मंगल का चिन्तन करना चाहिये।'
पिप्पलाद को ज्ञान हुआ और उसने भगवान् विश्वनाथ के चरणों में मस्तक झुका दिया। 🙏🙏जय श्री राधे कृष्ण🙏🙏
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