पितृ-दिवस पर जानिए, क्या कहते हैं ‘पिता’ के बारे में वेद, पुराण, महाकाव्य और ऋषि मुनि ? पिता हो या पुत्र, दोनों के लिए जानना है बेहद जरूरी !

‘पितृ-दिवस’ क्यों और कब मनाया जाता है? इसका क्या महत्व है?



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आजकल ‘पितृ दिवस’ यानी ‘फादर्स डे’ वैश्विक स्तरपर मनाया जाने लगा है। इसे जून के तीसरे रविवार को मनाया जाता है। भारत में पिछले कुछ वर्षों से ‘पितृ-दिवस’ के प्रति रूझान में बड़ी तेजी से बढ़ौतरी दर्ज की जा रही है। ‘फादर्स डे’ मनाने की शुरूआत पश्चिमी वर्जीनियाके फेयरमोंट में 5 जुलाई, 1908 को हुई थी। इसका मूल उद्देश्य 6 दिसम्बर, 1907 को पश्चिम वर्जीनिया के मोनोंगाह की एकखान दुर्घटना में मारे गए 210 पिताओं को सम्मान देना था। लेकिन, इसके बाद ‘फादर्स डे’ मनाने का सिलसिला धीरे-धीरे बढ़ता चला गया और यह वैश्विक स्तर पर मनाया जाने लगा। बेशक, ‘फादर्स डे’ के मूल में पश्चिमी वर्जीनिया की एक दर्दनाक खान दुर्घटना मौजूद हो, लेकिन भारत में ‘पिता’ को सदा सर्वदा पूज्‍य माना जाता रहा है।  

भारतीय सभ्‍यता और संस्कृति में ‘पितृ-दिवस’ के मायने ही अलग हैं। हिन्दी साहित्य में ‘पिता’ को ‘जनक’, ‘तात’, ‘पितृ’, ‘बाप’, ‘प्रसवी’, ‘पितु’, ‘पालक’, ‘बप्पा’, ‘बापू’ आदि अनेक पर्यायवाची नामों से जानाजाता है। पौराणिक साहित्य में श्रवण कुमार, अखण्ड ब्रह्चारी भीष्म, मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम आदि अनेक आदर्श चरित्र प्रचुर मात्रा में मिलेंगे, जो एक पिता के प्रति पुत्र के अथाह लगाव एवं समर्पण को सहज बयां करते हैं।

वैदिक ग्रन्थों में ‘पिता’ के बारे में स्पष्ट तौर पर उल्लेखित किया गया है कि ‘पाति रक्षति इति पिता’ अर्थात जो रक्षा करता है, ‘पिता’ कहलाता है।

यास्काचार्य प्रणीत निरूक्तम केअनुसार, ‘पिता पातावा पालयिता वा’, ‘पिता-गोपिता’ अर्थात ‘पालक’, ‘पोषक’ और ‘रक्षक’ को ‘पिता’ कहते हैं।

महाभारत में ‘पिता’ की महिमा का बखान करते हुए कहा गया है:

पिता धर्मःपिता स्वर्गः पिताहि परम तपः।

पितरि प्रितिमापन्ने सर्वाः प्रीयन्ति देवताः 

अर्थात ‘पिता’ ही धर्म है, ‘पिता’ ही स्वर्ग है और पिता ही सबसे श्रेष्ठ तपस्या है। ‘पिता’  के प्रसन्न हो जाने से सभी देवता प्रसन्न हो जाते हैं। इसके साथ ही कहा गया है कि ‘पितुर्हि वचनं कुर्वनन कन्श्चितनाम हीयते’ अर्थात ‘पिता’ के वचन का पालन करने वाला दीन-हीन नहीं होता। 

वाल्मीकि रामायण केअयोध्या काण्ड में पिता की सेवा करने व उसकी आज्ञा का पालन करने के महत्व का उल्लेख करते हुए कहा गया है:

न तोधर्म चरणं किंचिदस्ति महत्तरम्।

यथा पितरिशुश्रुषा तस्य वावचनक्रिपा।।

अर्थात, पिता की सेवा अथवा, उनकी आज्ञा का पालन करने से बढ़कर कोई धर्माचरण नहीं है। 

हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व में पिता की महत्ता का बखान करते हुए कहा गया है:

दारूणे चपिता पुत्र नैवदारूणतां व्रजेत।

पुत्रार्थ पदःकष्टाः पितरः प्रान्पुवन्ति हि।।

अर्थात, पुत्र क्रूर स्वभाव का हो जाए तो भी पिता उसके प्रति निष्ठुर नहीं हो सकता, क्योंकि पुत्रों के लिए पिताओं को कितनी ही कष्टदायिनी विपत्तियाँ झेलनी पड़ती हैं।

महाभारत में युधिष्ठर ने यक्ष के एक सवाल के जवाब में आकाश से ऊँचा ‘पिता’ को बताया है। इसका अभिप्राय है कि पिता के हृदय-आकाश में अपने पुत्र के लिए जो असीम प्यार होता है, वह अवर्णनीय है। 

पदम पुराण में माता-पिता की महत्ता बड़े ही सुनहरी अक्षरों में इस प्रकार अंकित है:

सर्वतीर्थमयी मातासर्वदेवमयः पिता।

मातरं पितरंतस्मात सर्वयत्रेन पुतयेत्।। 

प्रदक्षिणीकृता तेनसप्त द्वीपा वसुंधरा।

जानुनी चकरौ यस्य पित्रोः प्रणमतः शिरः।

निपतन्ति पृथ्वियां च सोअक्षयं लभते दिवम्।।

अर्थात, माता सभी तीर्थों और पिता सभी देवताओं का स्वरूप है। इसलिए सब तरह से माता-पिता का आदर सत्कार करना चाहिए। जो माता-पिता की प्रदक्षिणा करता है, उसके द्वारा सात द्वीपों से युक्त पृथ्वी की परिक्रमा हो जाती है। माता-पिता को प्रणाम करते समय जिसके हाथ घुटने और मस्तिष्क पृथ्वी पर टिकते हैं, वह अक्षय स्वर्ग को प्राप्त होता है। 

मनुस्मृति में महर्षि मनु भी पिता कीअसीम महिमा का वर्णन करते हुए कहते हैं:

उपाध्यान्दशाचार्य आचार्याणां शतं पिता।

सहस्त्रं तुपितृन माता गौरवेणातिरिच्यते।।

अर्थात, दस उपाध्यायों सेबढ़कर ‘आचार्य’, सौ आचार्यों सेबढ़कर ‘पिता’ और एक हजारपिताओं से बढ़कर ‘माता’ गौरव मेंअधिक है, यानी बड़ीहै। 

‘पिता’ के बारे में मनुस्मृति में तो यहां तक कहागया है:

‘‘पितामूर्ति: प्रजापतेः’’

अर्थात, पिता पालन करने से प्रजापति यानी राजा व ईश्वर का मूर्ति रूप है।

भारतीय संस्कृति और वैदिक साहित्य में जोर देकर कहा गया है कि माता-पिता द्वारा जन्म पाकर ललित पालित होने के पश्चात बच्चा जब बड़ा हो जाता है तब, माता-पिता के प्रति उसके कुछ कर्त्‍तव्‍य हो जाते हैं, जिसका उसे पालन करना चाहिए। वैदिक संस्कृति कहती है कि पुत्र का कृत्‍तव्‍य है कि माता-पिता की आज्ञा का पालन करे।जो पुत्र माता-पिता एवं आचार्य का अनादर करता है, उसकी सब क्रियाएं निष्फल हो जाती हैं, क्योंकि माता-पिता के ऋण से मुक्त होना असम्भव है। इसीलिए, माता-पिता तथा आचार्य की सेवा-सुश्रुषा ही श्रेष्ठ तप है। लेकिन, विडम्बना का विषय है कि आधुनिक युवावर्ग अपने पथ से विचलित होकर अपनी प्राचीन भारतीय वैदिक सभ्यता एवं संस्कृति को निरन्तर भुलाता चला जा रहा है। प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। आज घर-घर में पिता-पुत्रों के बीच आपसी कटुता, वैमनस्ता और झगड़ा देखने को मिलता है। भौतिकवाद आधुनिक युवावर्ग के सिर चढ़कर बोल रहा है। उसके लिए संस्कृति और संस्कारों से बढ़कर सिर्फ निजी स्वार्थ पूर्ति और पैसा ही रह गया है। 

इससे बड़ी विडम्बना का विषय और क्या हो सकता है कि एक ‘पिता’ अपने पुत्र के मुख से सिर्फ प्रेम व आदर के दो शब्द की उम्मीद करता है, लेकिन उसे पुत्र से उपेक्षित, तिरस्कृत और अभद्र आचरण के अलावा कुछ नहीं मिलता है।निःसन्देह, यह हमारी आधुनिक शिक्षा प़द्धति के अवमूल्यन का ही दुष्परिणाम है।

पौराणिक ग्रन्थ देवीभागवत में स्पष्ट तौरपर लिखा गया है:

धिक तंसुतं यः पितुरीप्सितार्थ,

क्षमोअपि सन्नप्रतिपादयेद यः।

जातेन किंतेन सुतेन कामं,

पितुर्न चिन्तां हि सतुद्धरेद यः।।

अर्थात, उस पुत्र को धिक्कार है, जो समर्थ होते हुए भी पिता के मनोरथ को पूर्ण करने में उद्यत नहीं होता। जो पिता की चिन्ता को दूर नहीं कर सकता, उस पुत्र के जन्म का क्या प्रयोजन है? 

इसी तरह गरूड़ पुराण में लिखा गया है:-

सर्वसौख्यप्रदः पुत्रःपित्रोः प्रीतिविवद्धर्नः।

आत्मा वैजायते पुत्र इतिवेदेषु निश्चितम्।।

अर्थात, पुत्र सब सुखों को देने वाला होताहै, माता-पिता का आनंदवर्द्धक होता है। वेदों में ठीक ही कहा गया हैकि आत्मा ही पुत्र के रूप में जन्म लेती है। 

आधुनिक युवापीढ़ी को ‘पितृ-दिवस’ पर संकल्प लेना चाहिए कि वे वैदिक सभ्यता एवं संस्कृति के अनुरूप अपने पिता के प्रति सभी दायित्वों का पालन करने का हरसंभव प्रयास करेंगे और साथ ही महर्षि वेदव्यास द्वारा महाभारत केआदिपर्व में दिए गए ज्ञान का सहज अनुसरण करेंगे  कि ‘जो माता-पिता की आज्ञा मानता है, उनका हित चाहता है, उनके अनुकूलच लता है तथा माता-पिता के प्रति पुत्रोचित व्यवहार करता है, वास्तव में वही पुत्र है।’ हमें हमेशा यह याद रखने की आवश्यकता है कि ‘‘देवतंहि पिता महत्’’ अर्थात ‘पिता’ ही महान देवता है। 

    लेखक स्वतंत्र पत्रकार, लेखक एवं समीक्षक हैं।)

राजेश कश्यप

स्वतंत्र पत्रकार, लेखक एवं समीक्षक

म.नं. 1229, पाना नं. 8, नजदीक शिव मन्दिर,

गाँव टिटौली, जिला. रोहतक

हरियाणा-124001
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लेखक परिचय : हिंदी और जनसंचार में द्वय स्‍नातकोत्‍तर। गत अढ़ाई दशक से समाजसेवा एवं प्रिन्‍ट एवं इलेक्‍ट्रोनिक मीडिया के लिए स्‍वतंत्र लेखन जारी। प्रतिष्ठित राष्‍ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में तीन हजार से अधिक लेख एवं फीचर प्रकाशित। ब्‍लॉगर एवं स्‍तम्‍भकार। लगभग एक दर्जन पुस्‍तकों का लेखन एवं सहलेखन। दो दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित सम्‍मान एवं पुरस्‍कारों से अलंकृत। 

Category:Spirituality



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Written by राजेश कश्‍यप

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वरिष्‍ठ पत्रकार, लेखक एवं समीक्षक (स्‍वतंत्र)

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