हे परमात्मन्! आप जगत में
कहलाते भूपों के भूप।
सत-रज-तम तीनों गुण लेकर
धारण करते नाना रूप।।
आप अजन्मा कहलाकर भी
लेते रहते हैं अवतार।
कर्मरहित होकर भी करते
सदा शत्रुओं का संहार।।
सोते हुए योगनिद्रा में
सदा जागते रहते आप।
तीन लोक चौदह भुवनों में
महिमा रही आपकी व्याप।।
आप रचयिता हैं अनन्यतम
रची आपने सारी सृष्टि।
देख आपको पाती केवल
भक्तजनों की अन्तर्दृष्टि।।
सर्जक पालक आप, आप ही
करते हैं सबका संहार।
युगों - युगों से कीर्ति आपकी
गाता आया है संसार।।
पुरुष पुरातन जग कहता पर
होते आप न कभी जरायु।
सेवा को तत्पर रहते जल-
अवनी-अम्बर-पावक-वायु।।
सामवेद के सप्त सुरों में
विद्यमान महिमा के गीत।
सबको लेते जीत आप पर
कोई तुम्हें न पाता जीत।।
उदासीन रहकर भोगों से
आप भोगते सारे भोग।
योगिराज बनकर सिखलाते
कैसे साधा जाता योग।।
योगी करते ध्यान आपका
कर्मवीर करते निज कर्म।
समय समय पर आप जन्म ले
स्थापित करते जग में धर्म।।
रवि- रश्मियां, रत्न सागर के
जिस प्रकार हैं गणनातीत।
उसी प्रकार आपके गुण भी
जिनसे करें भक्तजन प्रीत।।
वेद-पुराण-उपनिषद गाते-
'नेति-नेति', कहते हैं भक्त-
मन-वाणी से परे आप हैं
सचराचर में व्यक्ताव्यक्त।।
@ महेश चन्द्र त्रिपाठी
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