क्षत-विक्षत होता अन्तर्मन नित पढ़कर अखबार

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11 Jun '24
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क्षत-विक्षत होता अन्तर्मन

नित पढ़कर अखबार

अक्षत किन्तु बनी रहती है

आदत सदाबहार ।

*

कपट कुरंग रंग दिखलाता

कर नित नए प्रयास

दम्भ दैत्य सुनता न किसी की

रचे नया इतिहास

लहूलुहान भावना होती

होते पंगु विचार

अक्षत किन्तु बनी रहती है

आदत सदाबहार ।

*

उर अरण्य में लग जाती है

जब ईर्ष्या की आग

सारी सद्प्रवृत्तियाॅं जातीं

अन्त:पुर से भाग

होने लगता दुष्प्रवृत्ति का

सुरसा-सा विस्तार

अक्षत किन्तु बनी रहती है

आदत सदाबहार ।

*

अतुलित बल के धाम राम की

प्रतिदिन आती याद

पता नहीं वे कब आएंगे

कितने अर्से बाद

लोभ-मोह का रावण करता

प्रतिपल प्रबल प्रहार

अक्षत किन्तु बनी रहती है

आदत सदाबहार ।

महेश चन्द्र त्रिपाठी

Category:Poem



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Written by Mahesh Chandra Tripathi