क्षत-विक्षत होता अन्तर्मन
नित पढ़कर अखबार
अक्षत किन्तु बनी रहती है
आदत सदाबहार ।
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कपट कुरंग रंग दिखलाता
कर नित नए प्रयास
दम्भ दैत्य सुनता न किसी की
रचे नया इतिहास
लहूलुहान भावना होती
होते पंगु विचार
अक्षत किन्तु बनी रहती है
आदत सदाबहार ।
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उर अरण्य में लग जाती है
जब ईर्ष्या की आग
सारी सद्प्रवृत्तियाॅं जातीं
अन्त:पुर से भाग
होने लगता दुष्प्रवृत्ति का
सुरसा-सा विस्तार
अक्षत किन्तु बनी रहती है
आदत सदाबहार ।
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अतुलित बल के धाम राम की
प्रतिदिन आती याद
पता नहीं वे कब आएंगे
कितने अर्से बाद
लोभ-मोह का रावण करता
प्रतिपल प्रबल प्रहार
अक्षत किन्तु बनी रहती है
आदत सदाबहार ।
महेश चन्द्र त्रिपाठी