आज़ादी की नई धूप

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10 Aug '24
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आज सुबह से ही मौसम बड़ा खुशगवार था। छुट्टी का दिन और अच्छा मौसम ये दो चीजें किसी को भी प्रसन्न करने के लिए काफी होती है। ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी था। बस एक कप चाय लेकर मैंने बालकनी का दरवाज़ा खोल दिया और आराम से अपनी आराम कुर्सी पर बैठकर चाय का आनंद उठाने लगा। अचानक ही मेरी नज़र सामने बनने वाले एक नए घर पड़ी। निर्माणाधीन इलाकों में ये दृश्य आम है, इसलिए पहले तो मेरा ध्यान नहीं गया। पर अचानक ही कुछ हंसी ठिठोली की आवाज़ों ने मेरी तंद्रा भंग की। 
अचानक ही मैंने देखा कि श्रमिकों में कुछ 12-13 वर्ष के छोटे बच्चे भी थे। जो मेरे ही बच्चों की उम्र के थे पर जहां मेरे बच्चे कंधे पर सिर्फ अपने बस्तों का बोझ उठाकर थक जाते थे, वहीं ये बच्चे अपने नन्हे कंधों पर जिम्मेदारियों का बोझ और सर पर ईटों का तसला लेकर भी हंसते मुस्कुराते आगे बढ़ रहे थे। मन उनके प्रति संवेदना से भर गया परंतु आज के स्वार्थपूर्ण जीवन में कोई किसी के क्या कर सकता है, ऐसी सोच से मैं अंदर आ गया।
पर कुछ तो था उन मासूम बच्चों के चेहरे में , जो मैं बरबस ही उस ओर आकर्षित हो गया। फिर तो मैं हर सप्ताह इतवार का इंतज़ार करता और उनके क्रियाकलापों को देखता। ऐसे ही दो तीन हफ्ते बीत गए। बाल मजदूरी अपराध है, मैं जानता था पर किसी के पचड़े में क्या पड़ना सोचकर मैं इससे दूर ही रहा। फिर एक रविवार को उनमें से एक बच्चा मेरी बालकनी के नीचे आया और चिल्लाकर बोला नमस्ते अंकल, क्या आप हमें थोड़ा पानी दे सकते हैं। हमारा पानी खत्म हो गया है। मैंने फटाफट एक बॉटल पानी लेकर उसे दे दिया। उसने बड़ी ही कृतज्ञता भरी आंखों से मेरा धन्यवाद किया। अगले हफ्ते जब उस बच्चे ने मुझे देखा तो सिर झुकाकर अभिवादन किया। उसके आचरण से मुझे उसके संस्कारों का पूर्ण ज्ञान हो गया था। धीरे धीरे हमारी बातचीत होने लगी। उसने मुझे बताया कि वो बिहार का है, दो साल पहले कोसी नदी की बाढ़ में उसके माता पिता और अन्य रिश्तेदारों की मृत्यु हो गई। केवल वो और उसकी छोटी बहन बच गए। काम की तलाश में वो शहर आ गया और इस तरह से वो इस काम में लग गया। उसकी कहानी सुन मुझे उससे सहानुभूति और बढ़ गई। अब तो गाहे बगाहे मैं उससे बात करता और कभी कभार उसे खाने का सामान भी देता। वो हमेशा वो दोस्तों से मिल बांटकर खाता। धीरे धीरे वो बच्चा मेरे मन में घर करने लगा। एक दिन मैंने देखा कि ठेकेदार उसे बहुत डांट रहा है और वो रोए जा रहा है। मैने उस ठेकेदार को रोका और ऐसा करने से मना किया। मेरी बात सुनकर वो थोड़ा चिढ़ा पर चुप हो गया।
ऐसे ही कुछ दिन बीतने के बाद एक दिन बहुत तेज़ मूसलाधार बारिश हो रही थी । मैं खिड़कियां बंद कर ही रहा था की मैंने देखा सामने वाले घर के बच्चे अभी भी काम पर लगे हैं। मैने उन्हे चिल्ला कर माना किया तो वे बोले अगर काम नही किया तो ठेकेदार पैसे नहीं देगा और बिना पैसे के चूल्हा नहीं जलेगा। उनकी बातों से मैं द्रवित हो गया और उनके खाने के लिए कुछ सामान लेकर बाहर चला आया। ताकि वो काम बंद करके अपने घर जा सकें। पर उन बच्चों ने कहा अगर हम काम नहीं करेंगे तो ठेकेदार किसी और को काम पर रख लेगा जिससे हम बड़ी मुसीबत में पड़ जायेंगे।
उनकी मजबूरी सुन मैं चुप चाप अंदर आ गया। पर फिर मुझसे खाना नहीं खाया गया। अगले दिन ऑफिस में भी मेरा मन नहीं लग रहा था। तभी मेरे मित्र ने मुझे आवाज़ दी। मेरी उदासी देखकर उसने मुझसे उसका कारण पूछा। पहले तो ये सोचकर कि वो समझेगा नहीं, मैं चुप रहा पर फिर उसके ज़ोर डालने पर मैंने उसे उन बच्चों के बारे में बता दिया। मेरी बात सुनकर वो चिल्लाया कि बाल श्रम एक अपराध है तो मैंने इसे रोका क्यों नहीं, पर फिर उसने मुझे सुझाया की देख तू सामने से कुछ मत कर पर मेरी दीदी एक आशाकिरण संस्था से जुड़ी हैं, जो ऐसे बच्चों के लिए आवास, शिक्षा और भोजन का प्रबंध करती है। तू उनसे बात कर वो ज़रूर तेरी मदद करेंगी। उसकी सलाह से मैने उसकी दीदी से बात की और उन्हें वस्तुस्तिथी से अवगत कराया। दीदी ने मुझे आश्वासन  दिया वो जल्द ही कुछ करेंगी। 
2 दिन बाद 14 अगस्त की सुबह 2-3 गाडियां उस घर के सामने रुकीं और बच्चों से श्रम करवाने वाले उस ठेकेदार को तलब किया गया। अंदर से सारे बच्चों को बुलाया गया और उन्हें गाड़ी मे बैठने को कहा गया। बच्चों के जाने  से मैं दुखी था पर निश्चिंत था कि कल के स्वतंत्रता दिवस की आज़ादी की धूप उनका इंतज़ार कर रही है। और कल सही मायने में इनका स्वतंत्रता दिवस है।

Category:Stories



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Written by Jyotsna Sharma

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