मैं प्रकृति हूँ, प्रकृति माँ,
मैं इस दुनिया को चलाती हूँ,
मैं ही इसे सुन्दर बनाती हूँ,
मैंने इस दुनिया को दिये हैं,
अनेकों अनुपम उपहार।
फिर भी मुझ पर,
लगा है आरोप,
मैंने तबाही मचा कर,
दुनिया को दिया उजाड़?
मुझे न दोष दो मानव,
तुम इस तबाही का,
झाँको अपने अंदर,
स्वयं से पूछो,
कौन है जिम्मेदार,
इस बर्बादी का?
तुमने किया है,
निरन्तर मेरा दोहन,
मेरे अनुपम उपहारों का,
किया है तुमने शोषण।
मैंने दी है कितनी बार,
चेतावनी तुमको,
परन्तु हर बार,
मेरी चेतावनी को,
तुम करते हो अनदेखा।
संभल जाओ मानव,
अभी भी अवसर देती हूँ,
अगर किसी दिन,
बिफरी तो मेरा रौद्र रूप देखना,
नहीं फिर तुमको,
मैं कोई संभलने का अवसर दूँगी,
मैं तुमसे हर अपराध का,
हर अपमान का बदला लूँगी।
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