भारत ज्ञान और विज्ञान के मामले में सदैव आगे रहा है। जो ज्ञान देता है वह गुरु होता है, भारत ने विश्व का मार्गदर्शन किया, इसलिए उस समय भारत ओ विश्व गुरु कहा जाता था, लेकिन गुलामी के दौरान भारत के ज्ञान को नष्ट करने का प्रयास किया गया। इसके बाद भारत को जिस रूप में प्रस्तुत किया गया, वह मूल भारत से अलग था। लेकिन अब भारत ने फिर उसी राह पर कदम बढ़ाने प्रारम्भ कर दिए जिस पर भारत चलता आया है।
नालंदा विश्वविद्यालय में पुस्तकों का एक खजाना था, जिसमें ज्ञान समाहित था। विदेशियों ने वे सारी पुस्तकें जला दीं।
भूल थी जलाने वाले की, उसे लगा था कि ज्ञान जलाया जा सकता है, जिनका ज्ञान केवल किताबों पर आधारित हो उसे निश्चय ही जलाया जा सकता है, किंतु जो ज्ञान स्मृतियों में हो, मेधा में, प्रज्ञा में, रक्त में, मज्जा में घुला हुआ हो उसे कौन भस्म कर सकता है। जो योजनाएं उस समय कारगर थी वह अब कारगर होंगी, यह आवश्यक नहीं, हर युग की समस्या भिन्न तो हल और योजना भी भिन्न ही होगी। शत्रु यदि न हो तो साहस कुंद हो जाता है, समय समय पर आने वाले शत्रु, चाहे विपरीत समय के रूप में आएं, कोई खलनायक के रूप में आएं, विध्वंस के रूप में आए, आने चाहिए, वे क्षमता का परीक्षण करने, उसे बढ़ाने आते हैं।
प्रसन्नता यह कि फिनिक्स की तरह यह संस्कृति अपनी राख से उठ खड़ी होती है,
सुखद यह कि ऊपर से दिखने वाली ठंडी राख के नीचे अग्नि अभी भी शेष है,
निश्चित ही कितने सौ वर्षों से यह स्वप्न देखा जाता रहा, नालंदा के ध्वस्त गौरव ने न जाने कितनों को व्यथित किया, और तब ही किसी ने उसके पुनर्निर्माण की भूमिका रची। यह एक सम्मिलित प्रयास रहा जिसमें प्रत्येक भारतीय ने अपना स्वप्न साकार होते देखा, साझे स्वप्न, साझी खुशियों के जनक होते हैं, अकेले न कोई स्वप्न देखा जा सकता है न उसे पूरा किया जा सकता है, संस्कृति विषयक स्वप्न साझे प्रयास से ही फलित होते हैं ।
नालंदा की पुस्तकों की राख से ज्ञान की मशाल पूरे विश्व में फिर से ज्ञान का वही तेज फैलाए, वहां से निकले विद्यार्थी वैसे ही सम्मान पाएं जैसे उस युग में पाते थे, शास्त्रार्थ और आचार्य परंपरा वैसे ही दैदीप्यमान हो जैसे उस युग में होती थी।
अंततः ज्ञान और स्वयं की खोज में प्रवृत्त मानवता ही विश्व के श्रेष्ठ है और तमाम नकारात्मकताओं के पश्चात भी मुझे भरोसा है इस क्षेत्र में भारत विश्व का नेतृत्व करेगा।
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