मेरे खां

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17 May '24
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अब यूं न उदास हुआ करो,

की गम हमें भी होता है,

चाह तुम्हे थी तो क्या,

कोई यहां भी रोता है,

चाहने को तो हर दिल कुछ चाहे,

मगर चुप रह जाना भी कुछ होता है।

 

चलो अब यूं न ख़ामोश बैठो,

मान लिया, 

इक इश्क का लहज़ा, 

कुछ तो बोलो,

तरस रहे ये कान कुछ सुनने को,

फूंक दो लब्ज़ प्रेम के,

कुछ तो मिश्री घोलो।

 

कहती हो 'निकाह कुबूल करू,

तो किसके खातिर, जब 

खां मेरे दूर निगाहों के हैं,

और पूछती हो 

‘यहां मैं घूट के जी रही‘ 

खां तुम कहां,

किसकी निगाहों में हो?

इक रोज़, रोजा तोड़ने को,

चांद की नज़र बन जाओ

की मेरी निगाहें तरस रही,

तुम्हारी निगाह देखने को’

 

ज़रा गौर फरमाओ,

यूं बात इक तरफा नही होती,

मोहतरमा इश्क़ की बात एक तरफा नही होती,

और पूछती हो किसकी निगाहों में हो,

यहां आइना रो रहा,

तस्वीर तुम्हारी देखकर,

निगाहों में बहर का साया है,

होंठ सुख पपड़ी जम गई,

कंठ मांग रहा,

दवा प्यास की,

बांह फैला मुसाफ़िर

खड़ा राह तक रहा

पूछती हो तुम कि

मेरा खां किसकी निगाहों में है?

 

अरे यूं बदनाम ना करो,

इक शरीफ़ की इबादत को

रंज-ओ-ग़म, ना लाओ

इश्क की दरमियान,

की खां मर रहा, 

तुम्हारी सिर्फ निगाहों में।

Category:Poetry



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Written by Kamlesh Pandit

अंशकालिक लेखक पूर्णकालिक कलाकार Theatre 🎭

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