अलंकार

कविता

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09 Jun '24
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1शेष शब्दों का भार 

प्रतिध्वनि की पुकार 

अंतरात्मा विह्वल हुई 

सुनकर करुण चीत्कार 

इंसान की प्रकृति वही 

निष्क्रियता को न चाहे 

मन का गुरूर अहंकार 

वेदना का कैसा इजहार 

धुरी पर चले आसमान 

चाँद की जय जयकार 

तारों की अठखेलियाँ 

इश्क का लुप्त है संसार

दूर सघन सुंदर अहसास 

धड़कनों से सजा कर देहरी 

सजनी करे पी का इन्तजार 

आह से वाह तक का अलंकार 

2सपनों के घेरे में अक्सर 

यादों के धागे बुनती हूँ 

प्रिय के आगोश में जब 

गंभीरता को मैं चुनती हूँ 


 

महकती हवाओं की बातें 

भिगो जाती हैं तन मन को 

जब भी तन्हाई के मंजर में

वो पुराने राग गुनगुनाती हूँ 


 

पूजा की थाली में सिंदूर 

जैसे हो मेरा सर्वस्व घना 

पिया प्रेम से जब कभी मैं

 श्रृंगार रस में ढलती हूँ 


 

कविता में पिरोकर भाव 

आत्मा की गहराई से 

अतीत के बहते समुंदर में 

अक्सर तृप्त मन को करती हूँ

वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़

Versha varshney poetess and writer 

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Category:World



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Written by Versha Varshney

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