1शेष शब्दों का भार
प्रतिध्वनि की पुकार
अंतरात्मा विह्वल हुई
सुनकर करुण चीत्कार
इंसान की प्रकृति वही
निष्क्रियता को न चाहे
मन का गुरूर अहंकार
वेदना का कैसा इजहार
धुरी पर चले आसमान
चाँद की जय जयकार
तारों की अठखेलियाँ
इश्क का लुप्त है संसार
दूर सघन सुंदर अहसास
धड़कनों से सजा कर देहरी
सजनी करे पी का इन्तजार
आह से वाह तक का अलंकार
2सपनों के घेरे में अक्सर
यादों के धागे बुनती हूँ
प्रिय के आगोश में जब
गंभीरता को मैं चुनती हूँ
महकती हवाओं की बातें
भिगो जाती हैं तन मन को
जब भी तन्हाई के मंजर में
वो पुराने राग गुनगुनाती हूँ
पूजा की थाली में सिंदूर
जैसे हो मेरा सर्वस्व घना
पिया प्रेम से जब कभी मैं
श्रृंगार रस में ढलती हूँ
कविता में पिरोकर भाव
आत्मा की गहराई से
अतीत के बहते समुंदर में
अक्सर तृप्त मन को करती हूँ
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़
Versha varshney poetess and writer
©®
0 Followers
0 Following